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आत्मतत्व-विचार
लेता है, नियम धारण करता है, त्याग का आचरण करता है या प्रत्याख्यान करता है वह विरति में है । और जिसे कोई व्रत, नियम, त्याग या प्रत्याख्यान नहीं है, वह अविरति में है।
अविरति के कारण आत्मा ५ इन्द्रियो और ६-ठे मन के द्वारा विषयसुख में तल्लीन रहता है और ६ काय के जीवो की हिंसा करता है; इसलिए अविरति को कर्मबन्ध का कारण माना गया है। अगर किसी प्रकार का विरति-भाव धारण न किया जाये तो कर्मबन्ध होता ही रहता है ।
यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि, आत्मा स्वयं कर्मों को ग्रहण करता है, फिर भी 'कर्म लगे ऐसा कहा जाता है। यह एक प्रकार का भापा-व्यवहार है । हम गोद लगाकर डाक की टिकिट चिपकाते हैं, फिर भी 'टिकिट चिपक गयी' कहते हैं । __ साधु-महात्मा आपको प्रवचन सुनाकर कुछ व्रत-नियम-त्याग-प्रत्याख्यान करने के लिए कहते हैं, उसका रहस्य यही है कि आप कर्मबन्धन से बच सके और अपने आत्मा का उद्धार कर सके ।
कपाय
जीव के शुद्ध स्वरूप को जो कलुषित कर दे, उसे 'कपाय' कहते है | अथवा जिससे 'कष' यानी ससार की आय यानी आमदनी हो, अर्थात् संसार बढ़े उसे कषाय कहते है । अथवा जो आत्मा को कपे, कसे यानी दुग्व दे उसे कषाय कहते हैं, ये कपाय चार प्रकार के है-(१) क्रोध, (२) मान, (३) माया और (४) लोभ । शास्त्रकारो ने इन्हें भयकर अध्यात्म दोप कहा है। कोहं च माण च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा।
क्रोच अर्थात् गुस्सा, द्वेष या वैर-वृत्ति । मान यानी अभिमान, अहकार या मद, माया यानी कपट, दगा अन्य को धोखा देने की वृत्ति. और, लोभ अर्थात् तृष्णा, लादसा, या अधिकाधिक लेने की वृत्ति ।