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आत्मतत्व-विचार
कितने लोग कर्म को भवितव्यता मानकर कर्मवाद की निन्दा करते हैं। पर जैनधर्म तो विश्व के अनेक रहस्यो को उद्घाटित करने वाला महाविज्ञान है और अत मे वह पुरुषार्थ का प्रगस्त सदेग देने वाला है।
जैन-तत्त्वज्ञान मे कर्मवाट ओतप्रोत है, यह बात ध्यान में रखनी आपको आवश्यक है। नवतत्व पर एक दृष्टि रख कर टेन्वें, इससे ये सभी बातें आपके ध्यान मे आ जायेंगी।
नवतत्त्व और कर्मवाद जिन लोगों ने प्रकरण ग्रंथ का अभ्यास किया है, वे नवतत्त्व के नाम से पूर्णतः परिचित हैं। नवतत्व प्रकरण के प्रारम्भ में कहा गया है
जीवाऽजीवा पुण्णं, पावासवसंवरो य निज्जरणा । बंधो मुक्खो य तहा, नवतत्ता हुति नायब्वा ॥
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, सवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नौ तत्त्व जानने योग्य है।
इस लोक में जितनी वस्तुएँ हैं, उन सब का समावेश जीव और अजीव मे हो जाता है, इसलिए ये दोनों विशेष प्रकार से जानने योग्य हैं।
जीव-अर्थात् चेतनायुक्त द्रव्य, आत्मा ।
अजीव-यानी चेतनारहित द्रव्य । वह पॉच प्रकार का है :-धर्म, अधर्म, आकाग, काल और पुद्गल । कर्म पुद्गल का ही परिणाम है । यह बात मै पहले समझा चुका हूँ।
फल की अपेक्षा से कर्म के दो प्रकार हैं । १ शुभ फल देने वाले और २ अशुभ फल देने वाले कर्म । शुभ फल देने वाले कर्म पुण्य कहलाते हैं, अशुभ फल देनेवाले पाप । कुछ लोग कम का शुक्ल और कृष्ण दो भेट बताते हैं तो कितने ही कुशल और अकुगल दो प्रकार के कर्मों का वर्णन