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श्रात्मतत्व- विचार
चनिया उन तीन मेढको को लेने दौड़ा, तो वहाँ दूसरे दो-तीन मेढक भाग निकले। इस तरह बनिया भागे हुए मेंहको को लाता जाये और लाये हुए भागते जाये । यही क्रम चलता रहा । आखिरकार उसे मेटको से धड़ा करने का विचार उठाकर ताक पर रख देना पडा और रोडे - पत्थर लाकर अपना काम करना पडा ।
तात्पर्य यह है कि, ससार के सुख मेदक के धडे के समान है । वे पर्याप्त परिमाण मे कभी मिल नहीं पाते। दो सुख मिलते है, तो एक चला जाता है, एक मिलता है तो दो चले जाते हैं । इसी तरह चलता रहता है । इसीलिए सासारिक सुखो में सलग्न चित्त को गति नहीं मिल पाती ।
परन्तु ऐसे सयोगो मं गाति का अनुभव किस प्रकार हो, यह हम आपको बताना चाहते हैं । आपको जो शरीर, रूप, स्थिति, सयोग मिले हो, उनमे सन्तोष मानना सीखो ।
कर्म-सिद्धान्त बतलाता है कि आत्मा को पूर्वकृत कर्मानुसार गति ( नरकादि), शरीर, इन्द्रियों, रूप, रंग, कुल-कुटुम्ब ( गोत्र ) प्राप्त होते हैं । अर्थात् अपने किये हुए कर्म भोगने पड़ते है । कर्मफल को शाति से सह लेना ही हितकर है।
मनुष्य को अपना जीवन चलाने के लिए किसी-न-किसी प्रकार का पुरुषार्थ तो करना ही पड़ता है, लेकिन बहुत बार उससे निर्धारित फल नहीं मिलना । इससे लोग हताश-निराग हो जाते हैं और बड़ी अगान्ति भोगते हैं | उन्हें सोचना चाहिए कि, योग्य पुस्पार्थ करना तो हमारा फर्ज है ही, परन्तु फल-प्राप्ति में भाग्य ( पूर्वकृत कर्मों) का भी हाथ रहता है। इसलिए अगर फल में कमी या आधिक्य हो, तो विषाद- हर्प नहीं होना चाहिए।