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श्रात्मतत्व-विचार
चिलातीपुत्र सेठ के यहाँ बड़ा हुआ। वह घर के विविध काम करता और बच्चो को खिलाता । धन्य सार्थवाह को चार पुत्रो के ऊपर एक पुत्री हुई थी । उसका नाम सुप्रमा रखा गया था । वह अत्यन्त रूपवती और raण्यमयी थी । चिलातीपुत्र उसे खिलाता, खेलाता और घुमाने ले जाता । इस प्रकार वह उससे अत्यन्त स्नेह करने लगा ।
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एक को देखकर स्नेह उत्पन्न हो और दूसरे को देखकर द्वेप पैदा हो, यह भी कर्मों की करामात है । गौतम स्वामी ने एक किसान को प्रतिबोध देकर दीक्षा दी और उसे श्री महावीर स्वामी के पास लाये । उस किसान ने उन्हें दूर से ही देखकर कहा - " अगर यही आपका गुरु है तो मुझे दीक्षा नहीं लेनी ।" गौतम स्वामी ने पूछा - "लेकिन इसका कोई कारण ?" किसान ने कहा – “बस, यूँ ही अगर यह आपका गुरु है तो मुझे दोक्षा. नहीं चाहिए ।" और, रजोहरण आदि वहीं रखकर उलट कर उसने अपना ह्ल सँभाला | यह किसान पूर्व भव में सिह था । उस समय महावीर प्रभु के जीव ने त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में उसे मारा था, इसलिए उन्हें देखते. हैं। उसके मन में इस प्रकार का दुर्भाव उत्पन्न हुआ ।
चिलातीपुत्र सुपमा को देखता; खिलाता, उसके साथ बातें करता तभी उसे सन्तोष होता । सुप्रभा ही उसका जीवन बन गयी थी ।
अब किसी कारणवश धन्य सार्थवाह ने नाराज होकर उसे नौकरी से निकाल दिया । इसलिए उसे वह घर छोड़ना पड़ा, पर उसके दिल मे तो सुपमा ही समायी हुई थी ।
उसके बाद चिलातीपुत्र ने एक-दो जगह नौकरी की, लेकिन उसका मन नहीं लगा । आखिर वह जुआरियों की सोहबत में पड़ गया और जुआ खेलने लगा । जुए के साथ और भी ढोप लग जाते हैं, जैसे कि चोरी, मद्यपान, वेश्यागमन, आदि आदि ! चिलातीपुत्र इन सब व्यसनो म पूर्ण हो गया ।