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आत्मसुख
आपका लडका स्कूल जाता हो, तो फिक्र रहती है कि मैट्रिक कब पास होगा ? पास हो गया कि फौरन चिन्ता होने लगती है कि इसे किसी अच्छे कॉलेज में दाखिला कैसे मिले ? अच्छे कॉलेज में दाखिल हो गया और पढाई चलने लगी तो यह फिक छाई रहती है कि ग्रेज्युएट कब होगा ? ग्रेज्युएट हो गया कि चिन्ता होने लगी कि इसे नौकरी कहाँ मिलेगी ? या, व्यापार में स्थिर का होगा ? नौकरी धधे मे जम गया तो फिक्र आयी कि इसे अच्छे घर की सुशील कन्या कब मिलेगी ? अच्छे घर को सुशील कन्या मिल गयी और विवाह धूमधाम से हो गया तो तुरन्त यह चिन्ता लग जाती है कि इसका गृहससार कैसा चलेगा ? ससार अच्छा चलने लगा तो फिक्र होती है कि इसके यहाँ लडका कब होगा ? यूँ एक के बाद एक चिन्ता लगी ही रहती है ।
आप यह मानते हैं कि अब यह सुख मिला, वह सुख मिला, पर वहाँ आपके दूसरे कल्पित सुख चले जाते हैं और आपकी स्थिति मेंढको से धड़ा करनेवाले चनिये की -सी हो जाती है।
मेंढकों से धड़ा करनेवाले बनिये का दृष्टान्त
एक बनिया स्वारी वालों की बस्ती से घी लेने गया । उसे पॉच सेर घी लाना था, इसलिए साथ पंसेरी ले ली, पर कोई छोटे-बड़े बाट नहीं लिए। घी तपेली में लेना था, इसलिए उसका धड़ा करना था। लेकिन, वहाँ धड़ा करने के लिए कोई चीज नजर नहीं पड़ी । उसकी तलाश मे वह वाडीवाड़े से कुछ ही दूर गया था कि, उसे एक पोखर के किनारे मंढक कूटते हुए दिखायी दिये । बनिया कुछ मेढक पकड़कर कपडे मे बाधकर ले आया और उनसे तपेली का धड़ा करने लगा । तपेली के वजन का अन्दाजा लगाकर उसने ६ मेंढक रखे । पर वह कम पड़े । उसने तराजू नीचे रखकर दो मेंढक और निकाले । में तो तराजू से तीन मेढक
इतनी देर
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लेकिन कूदकर बाहर निकल कर छिप गये ।