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सोलहवाँ व्याख्यान
आत्मसुख
[ २ ]
महानुभावो ।
सर्व अरिहत देव, सर्वं सिद्ध परमात्मा, सर्व आचार्य भगवत, सर्व उपाध्याय भगवत और सर्व साधु भगवत हमारा कल्याण करें । उनके अचिन्त्य प्रभाव से ही इस जगत् में सब प्राणियो को सुख देनेवाला धर्मतीर्थ का प्रवर्तन और सचालन हो रहा है ।
धर्मतीर्थ में प्रवचन की प्रधानता है, कारण कि उसके पुष्ट आलम्बन से ही साधु साध्वी श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध-संघ इस ससार - पारावार को पार करने के लिए शक्तिमान होता है ।
इस प्रवचन रूपी महावृक्ष की बहुत-सी शाखा प्रशाखाएँ हैं । उनमे से एक शाखा है, श्रीउत्तराध्ययनसूत्र । उसकी छत्तीस प्रशाखाओं मे छत्तीसवीं प्रशाखा ने हमें अल्पससारी आत्मा का वर्णन - रूप सुन्दर फल प्रदान किया और हमने उसका आत्म-तत्त्व विचार रूपी मधुर रस चखा । आज के मगल अवसर पर हम उसका अभिवादन करें !
आत्मा के विषय में यह व्याख्यान अन्तिम है । इसमें मुख्यतः आत्मसुख प्राप्ति की विचारणा है, इसलिए आप अपनी चित्तवृत्ति का प्रवाह इसी तरफ प्रवाहित ग्खें ।
शास्त्रकार भगवत ने चार दुर्लभ वस्तुओ में श्रुति यानी शास्त्रश्रवण की भी गणना की है, इसलिए आप शास्त्रश्रवण के योग को कोई साधारण वस्तु न समझे । जब रागादि दोपों की परिणति मंद होती है, कषायो