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आत्मतत्व-विचार
'स्कधो' का समूह बडा हो, लेकिन उसमें 'परमाणु' कम हो, तो उनका औदारिक शरीर नहीं बन सकता। ऐसे 'स्कन्ध' भी जगत् में अनन्त है । उन्हें औदारिक गरीर के लिए 'अग्रणयोग्य' कहते है।
ऐसे 'स्कन्धो' का रूप छोटा हो और उसमे ‘परमाणुओं की संख्या बडी हो तो वे औदारिक शरीर के योग्य होते है। उन्हें औदारिक शरीर के. लिए 'ग्रहणयोग्य' कहते हैं ।
औदारिक शरीर के लिए योग्य 'वर्गणाओं' के 'स्कन्धो' का कलेवर छोटा हो और उसमें 'परमाणु' ज्यादा हो तो उनका 'औदारिक' या 'वैक्रियक' शरीर नहीं बन सकता, इसलिए वे 'वर्गणाएँ औदारिक तथा वैक्रियक गरीर के लिए 'अग्रहणयोग्य' कही जाती है। उनका आकार छोटा हो और परमाणुओं की संख्या ज्यादा हो तब वे वैक्रियक शरीर के लिए ग्रहणयोग्य होती हैं। __ आहारक-शरीर, तैजस-शरीर, भाषा, श्वासोच्छवास, मन और कर्म की वर्गणाओं के विषय मे भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए । ___सब वर्गणाएँ एक ही स्थान पर कैसे रह सकती हैं ? एक दूसरे से मिल क्यों नहीं जाती ? जैसे, आत्मा औदारिक शरीर के लिए योग्य वर्गणाओ को इकट्ठा करके औदारिक शरीर बना रहा हो, उस समय उसमे वैक्रियक शरीर की वर्गणाएँ क्यो नहीं आ जाती ? इसका जवाब यह है कि, 'परमाणुओं और उनके 'स्कन्धो' मे ऐसी शक्ति है कि, वे आकाश में एक, दो, असख्यात या अनन्त भी साथ रह सकते हैं। जैसे एक कमरे में चाहे जितने दीपको का प्रकाश रह सकता है । और, उसी कमरे में उन प्रकाशों के अतिरिक्त अनेक व्यक्ति और अनेक वस्तुएँ भी रह सकती हैं।
* रुई और सोने के बरावर के ढेर लें, तो उनमें मई के ढेर में कम 'परमाणु होंगे, सोने के ढेर में ज्यादा । 'स्कन्ध' का घनत्व (जतना अधिक होता है, उतना ही उसका परिणास सूक्ष्म होता है।