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श्रात्मतत्व- विचार
जीत लेगी और हिटलर विश्व विजेता के रूप में प्रकट होगा । किन्तु युद्ध दीर्घकाल तक चला और परिस्थिति बदली। इस हद तक परिस्थिति चदली कि हिटलर हार गया और उसे आत्महत्या करनी पड़ी। आत्मा और कर्म के युद्ध मे भी ठीक ऐसी ही स्थिति दिखलायी पड़ती है ।
पहले कर्म बडा जोर दिखाते हैं, लेकिन धीरे-धीरे आत्मा बलवान होता जाता है और आखिर वह कर्मसत्ता को सर्वथा नष्ट कर देता है । पर, यह तो अन्त की बात है । फिलहाल तो कर्मसत्ता को बलवान मान कर ही चलना है ।
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शास्त्रकारो ने कर्मसत्ता के विषय मे निम्न श्लोक कहा है :नीचैर्गौत्रावतारश्वरमजिन पतेर्मल्लिनाथेऽबलात्व । मान्ध्यं श्रीब्रह्मदत्ते भरतनुपजयः सर्वनाशश्च कृष्णे । निर्वाणं नारदेऽपि प्रशमपरिणतिः स्याच्चिलातीसूतेवा, त्रैलोक्याश्चर्यहेतुर्जयति विजयिनी कर्मनिर्माणशक्तिः ॥ सब पदों में जिनपति अर्थात् तीर्थंकर का पद श्रेष्ठ होता है । वे ऊँचे क्षत्रियकुल में जन्म धारण करते हैं, ऐसी परापूर्व की रीति है । फिर भी चरम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी दसवे प्राणत स्वर्ग से च्यव कर ऋपभदत्त ब्राह्मण की भार्या देवानन्दा की कुक्षि मे अवतरे । तीर्थंकर होते हुए भी निम्न कुल में क्यो अवतीर्ण हुए ? इसका कारण यह था कि, मरीचि के तीसरे भव में कुल-मद से बाँधा हुआ उनका नीच गोत्र-कर्म था । "मेरे दादा तीर्थंकरों में प्रथम, मेरे पिता चक्रवर्तियो मे प्रथम और मैं वासुदेवो में प्रथम हॅूगा । अहा । मेरा कुल कैसा उत्तम है ।" ऐसा कहकर उन्होंने जातिमट किया था । यह कर्म अनेक भवो के भोगने पर भी बाकी बचा हुआ उनके अन्तिम भव में उदय मे आया । इसलिए निम्न कुल में जन्म हुआ । यह एक आश्चर्य माना जायेगा, पर कर्मसत्ता के प्राबल्य के कारण ऐसा हुआ था !
सब तीर्थङ्कर पुरुष-रूप से जन्मते हैं, यह भी परापूर्व की रीति है ।