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कर्म की पहचान
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तत्त्वो का बोध कराने के लिए भी यही क्रम अपनाया जाता है । पहले उसका निर्देप होता है, फिर उसका विशेष वर्णन किया जाता है और अन्त में उसके हर एक अगोपाग का सूक्ष्म विवेचन किया जाता है ।
अनन्त वर्गणाओं में से सोलह विशेष रूप से जानने योग्य है । पहले उनका नामनिर्देष किया जाता है, फिर उनका परिचय दिया जायेगा । उन सोलह वर्गणाओं के नाम यह है :
(१) औदारिक शरीर के लिए अग्रहणयोग्य महावर्गणा ।
( २ ) औदारिक शरीर के लिए ग्रहणयोग्य महावर्गणा । (३) औदारिक - वैक्रियक शरीर के लिए अग्रहणयोग्य महावर्गणा । (४) वैक्रिय शरीर के लिए ग्रहणयोग्य वर्गणा । (५) वैक्रियक- आहारक शरीर के लिए अग्रहणयोग्य महावर्गणा । (६) आहारक शरीर के लिए ग्रहणयोग्य महावर्गणा । (७) आहारक- तैजस शरीर के लिए अग्रहणयोग्य महावर्गणा । (८) तैजस शरीर के लिए ग्रहणयोग्य महावर्गणा । (९) तैजस गरीर और भाषा के लिए अग्रहणयोग्य महावर्गणा । (१०) भाषा के लिए ग्रहणयोग्य महावर्गणा ।
(११) भाषा और श्वासोच्छवास के लिए अग्रहणयोग्य महावर्गणा । (१२) श्वासोच्छवास के लिए ग्रहणयोग्य महावर्गणा ।
(१३) श्वासोच्छवास और मन के लिए अग्रहणयोग्य महावर्गणा । (१४) मन के लिए ग्रहणयोग्य महावर्गणा ।
(१५) मन और कर्म के लिए अग्रहणयोग्य महावर्गणा । (१६) कर्म के लिए ग्रहणयोग्य महावर्गणा ।
इस सोलहवीं वर्गणा को 'कार्माण वर्गणा' कहा जाता है । 'महावर्गणाओं' मे बहुत-सी अनु-वर्गणाऍ होती हैं। इन महावर्गणाओ
मे से कुछ को अग्रहणयोग्य और कुछ को ग्रहणयोग्य कहा है । अब उनका तात्पर्य समझाया जाता है ।