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आत्मतत्व-विचार
का जोर ढीला पडा होता है और कल्याण की कामना प्रकटित होती है; तभी सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्रों के सुनने की जिज्ञासा होती है और प्रवल पुण्य के उदय से ही सुनानेवाले सद्गुरु का योग प्राप्त होता है ।
अल्प- ससारी आत्मा का प्रथम लक्षण जिनवचन की अनुरक्तता है । आपको जिनवचन प्रवचन मे रस आता हो और उसे सुनने की आकाक्षा सदैव रहती हो तो आप अवश्य ही अत्प- ससारी हैं, आपका ससरण बहुत थोडा बाकी रहा है, आपके आत्मविकास का अरुणोदय हो गया है पौद्गलिक सुख काल्पनिक हैं, नकदी हैं, क्षणिक हैं, तुच्छ हैं, निःकृष्ट है, निस्सार है, यह बात कल हमने विस्तार से समझायी थी । उन्हें छोडे विना सच्चे आत्मसुख की प्राप्ति नहीं होनेवाली, यह मैने भलीभाँति समझाने की चेष्टा की थी ।
आत्म-मुख प्राप्त करने के लिए पहली आवश्यकता मानसिक शाति की है । लेकिन, आजकल तो ऐसी स्थिति नजर आती है, मानो उसका दुष्काल पड गया हो । मत्री से लेकर चपरासी तक और सेठ से लेकर मजदूर तक किसी को गाति नहीं है । जो दस हजार रुपये महीने कमा रहा है, वह भी हाय-हाय कर रहा है और जो पाँच सौ कमा रहा है उसके पीछे भी चलाये लगी हुई है। दस हजार की आमदनी वाला भी दौड़ा-दौड़ी कर रहा है और लाखों के वारे-न्यारे करनेवाला भी चिन्ता मे मुक्त नहीं है। लोग झखना करते हैं गाति की, पर जीवन का सरंजाम इस तरह कर रखा है कि, जिसमे शांति के दर्शन हो ही नहीं । इस सारी परिस्थिति को सुधारना आवश्यक है ।
जब हम किसी वस्तु के पाने की इच्छा हो जाती है, तो नत्र तक वह वस्तु मिल नहीं जाती हमें गाति नहीं मिलती, और उस वस्तु के मिलते ही तुरत दूसरी चीज पाने की इच्छा पैदा हो जाती है. इसलिए मिली हुई गति नहीं टिकती । इस प्रकार इच्छा और पूर्ति, पूर्ति और इच्छा का चक्र सदा चलता रहता है, इसलिए शास्त्रत गाति मिल ही नहीं पाती ।