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यात्मतत्व-विचार
यह उत्पत्ति और विनाश केवल आकृति या पर्याय का होता है; मूल द्रव्य तो ध्रुव-नित्य-शाश्वत होता है ।
इस जगत् में ६ द्रव्य है, वे हमेशा ६ ही रहते हैं। उनकी संख्या में कमी-वेशी नहीं होती । लेकिन, उनके पर्याय बदलते रहते है। इसलिए जब यह कहा जाता है कि किसी वस्तु का आविष्कार हुआ तो इसका तात्पर्य केवल यह होता है कि उस द्रव्य का एक नया पर्याय हमारे सामने आया है । इसी प्रकार, यह कहा जाता है कि 'कोलम्बस ने अमेरिका की खोज की', इसका मतलब भी यही कि वह मुल्क तो करोडो वर्ष से वहीं था, पर कोलम्बस आदि के देखने में नहीं आया था। जब देखने में आया तो उसे 'नया देश' कहा । मूल वस्तु पहले से हो तो उसके केवल रूपान्तर को 'बिलकुल नयी वस्तु' नहीं कह सकते ।
आज के वैज्ञानिक जिसे अणु ( एटम ) कहते है, वह जैन-दृष्टि से 'अणु' नहीं बल्कि 'स्कन्ध है, क्योकि उसका स्फोट होता है। स्कोट 'स्कन्ध' का ही हो सकता है, 'अणु' का नहीं ।
जो स्कन्ध सूक्ष्मपरिणामी होते हैं वे ऑखो से नहीं देखे जा सकते, चादरपरिणामी देखे जा सकते हैं । छः द्रव्यो में केवल पुद्गल द्रव्य ही ऐसा है, जो आँखो से देखा जा सकता है और दूसरी इन्द्रियों का भी विषय बन सकता है । इस जगत् में हम जो कुछ देखते हैं; वह सब पुद्गल की ही रचना है।
सजातीय अनन्त 'स्कन्धों' के समूह को 'वर्गणा' कहते है-सजातीय माने समान जाति वाला । यहाँ जाति का मतलब 'समान लक्षणो वाली वस्तुएँ' है । 'अ' परमाणु वाले स्कन्ध' सजातीय है, उसी प्रकार 'ब' परमाणु वाले स्कन्ध सजातीय है । सजातीय स्कन्ध अनन्त प्रकार के है, इसलिए वर्गणाएँ भी अनन्त प्रकार की है।
पहले वस्तु का सामान्य वर्णन किया जाता है, फिर उसकी विशेषताओं का वर्णन किया जाता है।