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श्रात्मतत्व-विचार
इन ६ द्रव्यो मे आकाश क्षेत्र है और शेष क्षेत्री है, अर्थात् उसके अन्दर निवास करते हैं ।
इनमे पहला चैतन्ययुक्त है और शेष पॉच जड़ है । कुछ लोग पुद्गल के संयोजन से भी चैतन्य की उत्पत्ति मानते है और आत्मतत्त्व की स्वतंत्रता उड़ा देते है, परन्तु पुद्गल मे चैतन्य का एक अंश भी नहीं है | चाहे जितने पुद्गलो को चाहे जिस तरह से इकट्ठा किया जाये, उनसे चैतन्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती ।
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इन ६ द्रव्यो मे पुद्गल रूपी है । क्षेत्र सत्र अरूपी हैं । रूपी के गुण रूपी है. अरूपी के अरूपी । फिर भी, अरूपी पदार्थ अपने कार्यों द्वारा जाने जा सकते हैं, जैसे काल दिखता नहीं है, पर अपने कार्य से जाना जाता है, आत्मा दिखता नहीं है, पर अपने कार्य से जाना जाता है । इसी -तरह अन्य द्रव्य अपने कार्यों से जाने जाते हैं ।
जितना माप लोकाकाश का है, उतना ही धर्मास्तिकाय का है । नितने प्रदेश लोकाकाश के हैं, उतने ही प्रदेश धर्मास्तिकाय के है । आकाश के एक प्रदेश मे धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश होता है । अधर्मास्तिकाय के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिए ।
आधुनिक विज्ञान में भौतिक विज्ञान ( फिनिक्स ) की मुख्यता है । परन्तु, इस विषय में जैन- दर्शन ने भी बहुत कुछ दिया है। जैन-दर्शन मं पुद्गलों के स्थूल से स्थूल स्वरूप से लेकर सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्वरूप तक का विवेचन हुआ है । जबकि भारत के अन्य दर्शन, शब्द को आकाश का गुण मानते थे तब जैन दर्शन ने उसे पुद्गल का धर्म माना था । और, यह चलाया था कि वह क्षण मात्र में लोक के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँच सकता है, जो कि आज 'रेडियो' के आविष्कार मे सिद्ध हो गया है। इस प्रकार जैन दर्शन अत्यन्त सूक्ष्म और सत्य है और दिन-प्रति-दिन विद्वान् उसकी ओर आकृष्ट होते जा रहे हैं ।