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सतरहवाँ व्याख्यान कर्म की पहचान
महानुभावो !
अब तक हमने आत्मा के स्वरूप का विवेचन किया । हमने जान लिया कि आत्मा का स्वस्त्र अस्तित्व है, वह देहादि से भिन्न है, अजरअमर- अखण्ड है और अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख आदि गुणो मे युक्त है । लेकिन, कर्मावरण के कारण, कर्मसम्बन्ध के कारण, उसके ये गुण मर्यादित रूप में ही प्रकट होते हैं ।
यह समझा जाता है कि, सम्बन्ध जितना पुराना हो उतना ही मीठा और लाभदायक होता है, लेकिन कर्मों ने आत्मा को न तो कोई मिटास नहीं दिखलायी न कोई लाभ कराया। बल्कि, जैसे चूहे के साथ बिल्ली या सॉप के साथ न्यौला पेश आता है, वैसा व्यवहार कर्मों ने आत्मा के साथ किया है और उसे परीगान और दुःखी करने में कोई कसर नहीं रखा । कर्म आत्मा के घोर शत्रु रहे है । आत्मा जो इस ससार मे अनादिकाल से भ्रमण करता रहा है, उसका कारण कर्मों का कुटिल सम्बन्ध ही है ।
बहुत से लोग ऐसे हैं कि, जिन्होंने भूतकाल मे कैसे भी दुष्कर्म किये हो, पर सुधर कर सदुवर्तन करने लगते हैं, लेकिन जो दुर्जन हैं वे अपनी दुर्जनता नहीं छोड़ते । एक कवि ने कहा है
'दुष्ट न छोड़े दुष्टता, लाख सिखावन देत; चाहे जितना धोइये, काजल होत न श्वेत ।' - काजल को चाहे जितना धोइये, सफेद नहीं हो सकता, दुष्ट को चाहे जितनी सोख दीजिये, वह अपनी दुष्टता नहीं छोडता ।
उसी प्रकार