________________
२३८
श्रात्मतत्व-विचार
सुखी रहते है । इस प्रकार सन्तोष ही पुरुष का परम निधान है, महान
पूँजी हैं।
मनुमहाराज, जिन्होंने स्मृति अर्थात् हिन्दूधर्म का कानून लिखा, कहते हैं कि-
"
सन्तोषं परमास्थाय सुखार्थी संयतो भवेत् । सुखं सन्तोषमूलं हि दुःखमूलं विपर्ययः ॥
-सुख का मूल सन्तोष है और दुःख का मूल तृष्णा है । इसलिए मुख चाहनेवालो को सन्तोप का आश्रय लेकर मयमी बनना चाहिए । सन्तोपी रोज का रोन कमाये तो भी सुखी होता है, लेकिन असन्तोषी धन का ढेर रखे हुए भी दुःखी होता है । सन्तोपी अकेला हो, कोई सगासम्बन्धी न हो तो भी मस्त होता है और असन्तोषी बहुत से सगेसम्बन्धी और मित्रो के होते हुए भी दुःखी होता है ।
1
किसी दुःख, कष्ट या आपत्ति के आने पर आप घबरा जाते हैं और आपका मन अस्वस्थ बन जाता है । लेकिन, उस वक्त आप ऐसा विचार करें – “हे जीव | यह दुःख, कष्ट या आपत्ति बिना बुलाये नहीं आयी । तूने अपने पूर्व कर्मों द्वारा उसे आमंत्रण दे रखा था, इसीलिए आयी है । तो अब उसका स्वागत कर, घबराकर दूर न भाग । दुःख तो वामुदेव, चक्रवर्ती और तीर्थकरों को भी आते है, तू क्या चीज है ? तू इन सब दुःखो को शान्ति से सहन कर ले, ताकि नया कर्मबन्धन न हो ।"
1
ऐसा विचार करने से आपका मन शान्त रहेगा और दुःख दुःखरूप नहीं लगेगा ।
पुद्गल की ओर आप क्यों आकृष्ट होते है ? वह आपका सगा नहीं, पक्का विरोधी है, घोर शत्रु हैं | उसने आपको इतना भटकाया है, इतना दुःख दिया है, फिर भी आप उसका सग क्यो नहीं छोड़ने ?
काम वासना कामसेवन से बढती है, घटती नहीं । शास्त्रकारो ने कामवासना की अग्नि की उपमा दी हैं । उसमे भोगरूपी धी