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अात्मसुख
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इन्द्राणियो के साथ भोग करता है। उसके मुख से भी मुक्तात्मा का सुख अनन्त गुना होता है।
शास्त्रकार कहते है किसुरगणसुहं सम्मत्त, सवद्धा पिडिअ अणतगुणं । न य पावइ मुत्तिसुह, ताहिं वि वग्गवग्गृहि ॥
देवो के सर्वकाल के समस्त सुखो को एकत्र करके उन्हें अनन्त गुना कर दिया और उसके वर्ग का वर्ग अनन्त बार किया जाये तो भी वह मुक्ति मुख की बराबरी नहीं कर सकता ।
मुक्तावस्था मे, सिद्धावस्था में, आत्मा के ज्ञान, दर्शन, शक्ति और सुख का चरम विकास होता है। उससे श्रेष्ठतर अवस्था और कोई नहीं है। इसलिए, सुन पुरुषों के सर्वप्रयत्न उस अवस्था को प्राप्त करने के लिए ही होते है। उन प्रयत्नो का एक नाम धर्म है। आत्मा का सच्चा मुख प्राप्त करने के लिए आपको उस धर्म का ही आचरण करना है।
धर्म का विस्तृत विवेचन आगे किया जायेगा, लेकिन इतना अभी जान लीजिए कि, दान-गील-तप-भाव का समुचित आराधन करते रहना चाहिए और दिन-प्रति-दिन उसकी श्रीवृद्धि करते रहना चाहिए।
आप धन-वृद्धि मे सन्तोष मानते रहते है, लेकिन उस धन में केवल उतना ही आपका है, जो धर्म-मार्ग में खर्च किया जावे, शेत्र आपका नहीं है ! नहीं है ।। नहीं है । दान में दिया हुआ धन ही आपका है, इस पर
नगरसेठ का दृष्टान्त एक गाँव में गुरु महाराज पधारे। उस गाँव के लोग भाविक थे । वे चाहते थे कि गुरुमहाराज अपने गाँव में चौमासा करे तो अच्छा । इसलिए उन्होने नगरसेठ को आगे किया और सब की ओर से गुरुमहाराज से चौमासे की विनती की।