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अात्मतत्व-विचार
फिर भी एक बार उसका अनुभव हो जाने पर बारबार अनुभव करने का मन होता है। ___'मैं आत्मा हूँ, मैं अजर-अमर हूँ, मै अनन्त शक्ति, अनन्त दर्शन, अनन्त जान, अनन्त मुख, अनन्त आनन्द का भाडार है', ऐसी भावनाएँ भाते रहने से आत्मा का पूर्ण विकास किया जा सकता है। उस समय जो वाति-सुख-आनन्द का अनुभव होता है, वह अपूर्व होता है। उसकी उपमा जगत् की किसी वस्तु से नहीं दी जा सकती ।
इस मार्ग में प्रगति के लिए परमात्मा की अनन्य अन्तरग भक्ति चाहिए, सयम की साधना चाहिए और तप का आराधन चाहिए । आत्मा ही सयम और तप के द्वारा अपना शुद्ध स्वरूप प्राप्त करके परमात्मा होकर अनन्त आनन्द भोगने लगती है। वह परम सुख ही हमारी सच्ची सम्पत्ति है, हमारा सच्चा स्वरूप है ।
हमारा मन बन्दर-सरीखा है । उमे कभी कुछ, कभी कुछ लेने की इच्छा होती रहती है। इस तरह वह हमे नचाता रहता है। उसे वा करना सहल नहीं है, लेकिन अभ्यास से सब कुछ सिद्ध हो सकता है। महापुरुषो ने कहा है-'अभ्यासेन स्थिरं चित्तं' इसलिए आवश्यकता अभ्यास की है ।
धर्मक्रियाएँ कषायों को नष्ट करने के लिए है, राग-द्वेष कम करने के लिए हैं । धर्मक्रियाएँ अगर छल, कपट, दंभ, मायाचार से हो या सांसारिक सुख प्राप्त करने की इच्छा से हो तो भव-भ्रमण वढ जाता है; अनन्त बार जन्म मरण भोगना पडता है । आत्मा परभाव में रमण करे तो उसका वल क्षीण होता है, स्वरूप में रमण करे तो उसकी शक्ति बढती जाती है । ___ इतनी बात तो सदा याद रखिए कि आत्मा ज्यों-ज्यो वीतराग बनी जाती है, त्यों-त्यो आनन्द बढ़ता जाता है । वीतरागता से ही आत्मा का सच्चा सुख प्रकट होता है। आप वीतरागता को अपना व्येय बना लेंगे तो सच्चा सुख प्राप्त कर लेंगे।
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