________________
२३०
श्रात्मतत्व- विचार
कुछ लोग कहते है- "मुख - प्राप्ति की इच्छा रखने में आर्तव्यान क्या है ?" इच्छा रागम्प है, और राग आगरूप है । आप की मुग्वेच्छा म पौद्गलिक पदार्थों के प्रति तीत्र राग होता है । उनकी प्राप्ति में अन्तराय आने पर मन की हालत और खराब हो जाती है। इसलिए पौद्गलिक मुखो की इच्छा अतिध्यान का कारण है ।
आपके पास लाखो-करोडो रुपये हो, राजदरबार मे मान हो या गवर्नर का औह्ढा हो, लेकिन अगर आपके चित्त में शान्ति न हो तो उम धन, मान या सत्ता का क्या मूल्य है ? अगाति ही दुख है अगाति ही कष्ट है और अगाति ही मत्र मुखो की सहारक डाकिनी है ! सत्र पौद्गलिक सुखों का पर्यवसान अगाति में ही होता है, इसलिए उसे कटक और विष की तरह छोड देना ही योग्य है ।
आत्मा के मुख में दुःख नहीं होता, कारण कि सुख उसका स्वभाव है | अपना स्वभाव हमें कभी दुःख नहीं दे सकता । शेर को देखकर हम डरते हैं, लेकिन वह तो अपने स्वभाव मे मस्त रहता है ।
आत्मा का स्वभाव, सहज भाव, मुख है, इसीलिए उसे सच्चिदानन्द सहजानन्दी, आनन्दधन, आदि शब्दो से सम्बोधित किया जाता है । जिसमे सत्, चित और आनन्द हो, वह सच्चिदानन्द है । आत्मा सत्रूप है, अर्थात् सत्य वस्तु है, कोई काल्पनिक चीज नहीं है । आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में जो प्रमाण दिये जा चुके है, वे आपको याद होगे । आत्मा चित्-रूप है, यानी चेतनामय है । चैतन्य का भाडार है । वह जड या जड़ परिणति नहीं है । आत्मा आनन्द-रूप है, आनन्दमय है, आनन्द का अनुभव करता है । जो सहज आनन्दी अर्थात् स्वभाव से ही आनन्दी हो उसे सहजानन्दी कहते है । कम आनन्द स्वभाववाली नहीं है, इसलिए उसके द्वारा चाहे जैसे रसिक काव्य लिखे जाने हो, चाहे जैसी सुन्दर सूक्तियो का आलेखन होता हो तो भी उसे आनन्द नहीं आता । करछुली आनन्द स्वभाववाली नहीं है, इसलिए वह खीर, खडी आदि में चाहे जितनी