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श्रात्मा एक महान प्रवासी
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राजा की आँखें खुल गयीं । उसे मंत्री के प्रति पहले से भी अधिक मान हुआ और वह हृदय से मानने लगा कि मंत्री को धर्मबुद्धिनेमंत्री के पोपह ने ही मुझे भयानक अपकीर्ति से बचाया है ।
उसने हज्जाम के हाथ से अॅगूठी निकाल कर अपने पास रख ली और यह सोचता हुआ कि मंत्री से माफी माँगकर इसे उसको वापस दे दूँगा, वह मंत्री के निवास स्थान की ओर चला । खुली तलवार उसके हाथ ज्यो -की- त्यो थी ।
पोषध में बैठे हुए मत्री ने खिड़की में से देखा कि राजा नंगी तलवार लिए उसी की तरफ आ रहा है। उसने समझा कि वह उसे ही मारने आ रहा है । उसे नहीं मालूम की राजा उससे माफी माँगने, उससे मिलने, उसका उपकार मानने इस तरफ आ रहा है । मत्री अपनी आत्मा से कहने लगा- " तू इससे पहले बहुत बार मरा होगा ; परन्तु वह तो मोह के ar होकर या और किसी निमित्त से मग होगा, परन्तु धर्म के लिए, धर्म में अडिग रहकर अभी तक एक भी बार नहीं मरा। इसलिये, यह अवसर तेरे लिए अपूर्व है । तू निश्चल रहना । जरा भी न घबराना और मानना कि राजा तेरा मित्र है, दुश्मन नहीं । वह तो केवल निमित्त है । उस पर रोप क्यों किया जाय ? हे आत्मन् ! तू शान्त रहना । धर्म ह तुझे इस ससार से तारनेवाला है। मरने से तुझे क्यो डरना चाहिए मरने से वह डरता है जो पापी या अधम है । तू न अधर्मी है न पापी है, तो मौत से क्यो डरा जाये ?'
मंत्री इस प्रकार आत्मा को हित शिक्षा देकर मजबूत कर रहा था, कि राजा पास आ गया और हाथ की तलवार म्यान में करके नमस्कारपूर्वक बोला - " मत्रीश्वर ! अपने धर्म के कारण आप बच गये। मैं भी बच गया और मेरा राज्य भी बच गया ! इसलिए इस मुद्रा को फिर स्त्रीकार करो । आज से आपका वेतन दूना किये देता हूँ । और, भविष्य