________________
१३८
आत्मतत्व-विचार
श्रुतज्ञान के भेद
श्रुतज्ञान क्या है, यह हमने कल बतलाया था, जो ज्ञान पुस्तक पढकर, गुरु का उपदेश सुनकर या शब्द के निमित्त से हो उसे श्र तज्ञान कहते हैं । हमारे ज्ञान का बहुत बडा भाग इस रीति से प्राप्त होता है, इसलिए उसका बड़ा महत्त्व है। शास्त्रकारो ने चार ज्ञानो को गूँगा कहा और श्रुतज्ञान को 'बोलता' कहा सो इसी कारण । केवली भगवंत केवलज्ञान से सब जान सकते हैं, परन्तु उसका व्याख्यान तो शब्द द्वारा ही करते है । श्रुतज्ञान के चौदह भेद माने गये हैं। उनका आपको सामान्य परिचय कराये देते हैं । उन भेदों के जानने से आपको श्रुतज्ञान-सम्बन्धी परिभाषा बराबर समझ मे आ जायेगी ।
उसे अक्षरश्रुत कहते हैं । यानी हाथ पैर के इशारे से, आदि से, होता है उसे अनक्षरश्रुत कहते हैं ।
विविध प्रकार की लिपियो अर्थात् अक्षरो द्वारा जो ज्ञान होता है 'अक्षर' के उपयोग विना, चुटकी बजाने से, खखारने,
और, जो ज्ञान सर हिलाने से,
9
असंज्ञी जीवों का श्रुतज्ञान
संधीत कहलाता है । एकेन्द्रिय से
समूच्छिम पचेन्द्रिय तक असनी जीव है; और शेप पंचेन्द्रिय नीव संजी है । सजी जीवों का श्रुतज्ञान संज्ञीश्रुत कहलाता है ।
I
सम्यक् दृष्टियो द्वारा रचित श्रुत सम्यक्भूत कहलाता है और मिथ्या दृष्टियों द्वारा रचित श्रुत मिथ्याथ त कहलाता है ।
जिस श्रुत का आदि हो, उमे सादिथ त और जिसका आदि न हो उमे श्रनादिन कहते हैं। जिस श्रुत का अन्त हो उमे सपर्यवसितत और जिसका अन्त न हो उसे अपर्यवसितश्रुत कहते है ।
मादि, अनादि, सपर्यवसित और अपर्यवसित श्रुत का विचार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से करना है । एक व्यक्ति की अपेक्षा ने श्रुतज्ञान आदि और अन्त सहित है. यानी वह सादि और सपर्ववनित है;