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श्रात्मतत्व- विचार
ही करने की प्रेरणा क्यों नहीं करता है ? खराब या दुष्ट काम करने की प्रेरणा क्यो करता है ? सब सामान्य बुद्धि के लोग भी जानते है कि दुष्कर्म का परिणाम दुःख है; तो क्या सर्वज्ञ ईश्वर इस बात को नहीं जानता ? अगर, यह जान कर भी वह प्राणियो से दुष्कर्म कराता है, तो इसका मतलब तो यह हुआ कि वह उन्हे जानबूझकर दुःख के समुन्दर मे ढकेलता है । तो फिर 'महादयालु', 'कृपासिन्धु', 'परमपिता', आदि उसके विशेषण किस तरह सार्थक होगे ?
दुनिया का कानून तो यह है कि, जो अपराध करे वह दंड का पात्र; और अपराध करावे वह भी दड का पात्र । किसी को अपराध करने के लिये प्रेरित करने वाला 'इंडियन पेनल कोड' की दफा १०९ और ११४ के अनुसार दडनीय है । इसी तरह प्राणियों से दुष्ट कर्म या अपराध कराने के लिए ईश्वर भी सजा का पात्र ही गिना जायेगा । अगर कोई यह कहे, 'ईश्वर सबसे बड़ा है, इसलिए उसे सजा नहीं भोगनी पड़ती,' तो इसमें न्याय कहाँ रहा ? बड़ा पुरुष जुर्म करने की प्रेरणा करके छूट जाये और छोटा आदमी जुर्म करने की सजा भोगता रहे, यह तो सरासर अन्याय है ! अगर खराब काम की सजा मिलती हो— मिलती है - तो वह दोनों को मिलनी चाहिए और एक-सी मिलनी चाहिए । इस तरह ईश्वर को कर्म का प्रेरक मानने से उसमें अनेक दोषों का आरोप होता है, इसलिए ऐसा मानना योग्य नहीं है ।
परन्तु इस सिद्धान्त की सबसे बड़ी खराबी तो तब प्रकट होती है, जब लोग अनेक प्रकार के दुष्ट कर्म करके भी अपने को जिम्मेदार न मान कर अपने सब पापों की इंडिया ईश्वर के सर फोड़ते हैं । " तूने शराब क्यों पी ?" तो कहता है "ईश्वर ने प्रेरणा की ।" " तूने मास
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क्यों खाया ?”, तो कहता है "ईश्वर ने प्रेरणा की ", " तूने की ?", तो कहता है "ईश्वर ने प्रेरणा की " " तूने किया ?" तो भी कहता "ईश्वर ने प्रेरणा की " !
चोरी क्यों व्यभिचार क्यो