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श्रात्मतत्व-विचार
सम्यक्त्व के विषय मे आगे बहुत विवेचना करना है; इसलिए यहाँ उसका विस्तार नहीं करते, पर इतना बतलाये देते हैं कि, सम्यक्त्व आत्मा का मूल गुण है । इसलिए, उसका विकास अवश्य करना चाहिए। जिसका सम्यक्त्व निर्मल और दृढ़ होगा, वह कभी मुक्ति अवश्य पायेगा ।
लोग आनन्द की तय करते है । कोई खान में, कोई पान में, कोई गान में, तो कोई तान में किसी को वह कचन में दिखलायी देता है, तो किसी को कामिनी में। किसी को वह मकान महलो में दिखायी देता है, तो किसी को मान-पान और अधिकार में दिखायी देता है । लेकिन, यह सब भ्रम है, मायाजाल है । इनमें से किसी में न तो आनन्द है, न आनन्द देने की शक्ति । यह तो कस्तूरी मृग सी स्थिति है। कस्तूरीमृग को कस्तूरी की मीठी सुगंध आती है, उससे वह मोहित होकर उसकी तलाश में वन में भ्रमता है, पर वह उसका मूल स्थान नहीं शोध सकता । कस्तूरी है अपनी नाभि में और ढूँढता है बाहर । इसी तरह आनन्द का श्रोत बहता है आपकी आत्मा मे और आप उसे हॅढते हैं बाहर, तो वह आपको कैसे मिल सकता है ?
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खानपान, गानतान आदि में आपने आनन्द माना है, इसलिए वह आनन्ददायक लगते हैं अर्थात् वह आनन्द खानपान, गानतान आदि मे नहीं, बल्कि आपकी मान्यता का है । वह मान्यता बदल जाये तो उनमें से कौन-सी वस्तु आनन्द दे सकेगी ? अरुचि के रोगी को मेवामिठाई अच्छी नहीं लगती। जिसका जवान लड़का मर गया हो, उसे गाना-बजाना अच्छा नहीं लगता । कचन भी सबको आनन्द नहीं दे सकता । त्यागी - वैरागी को वह कटक समान लगता है । कामिनी का भी ऐसा ही है । जन तक मन मे मोहराय का ताडव चलता रहता है, तभी तक वह आनन्दजनक लगती है, पर वह ताडव रुका कि वह बन्धन रूप दिखने लगता है और उसके पाग से छूट जाने की भावना होती है ।