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श्रात्मतत्व-विचार
महाराज उन्हें संबोधित करते हुए कहते - 'क्यो नरघाजी, यह बात ठीक है न " लेकिन, उस वक्त नरघाजी का मुॅह उतर जाता । गुरु महाराज की नजर में यह आये बगैर न रहता । उन्हें आश्चर्य होता कि इसे नाम से बुलाये जाने पर आनन्द के दुःख क्यो होता है ? इसी कारण नरघाजी व्याख्यान समाप्त होते ही चल देता ।
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महाराज ने जिज्ञासावा एक श्रावक से इसका कारण पूछा । उस श्रावक ने, विशेष आग्रह किये जाने पर, बताया- "गॉव के लोग उन्हे 'टाकरा जी' कहकर बड़े मान से सबोधित करते हैं और आप उन्हें सिर्फ 'नरधाजी' कहते हैं, यह उसे अच्छा नही लगता । व्याख्यान-सभा में तो वह रोज विवेक के कारण हाजिर हो जाते है ।"
दूसरे दिन व्याख्यान मे प्रसंग आने पर गुरु महाराज ने कहा"क्यो ठाकराजी, ठीक बात है न " ये शब्द सुनते ही नरबाजी के मुख पर प्रसन्नता छा गयी और हर्ष के आवेग में वह एकदम खड़ा हो गया और अपनी अटपटी भाषा मे महाराजश्री का और उनके व्याख्यान का बखान करने लगा । महाराजश्री और सारी सभा खिलखिला कर हँस पड़ी । तत्र से महाराजश्री उने 'ठाकरा जी' कहकर संबोधन करते और ठाकराजी व्याख्यान के बाद भी गुरु महाराज के सामने बैठकर वार्तालाप करने लगे ।
जब आपको मानपूर्वक संबोधित किया जाता है तो आप प्रसन्न होते हैं। पर, मान से आपका क्या कल्याण होनेवाला है ? नाम की अपेक्षा काम पर विशेष लक्ष दीजिये | अगर आपका कारी, नीतिमान और धर्मपरायण होगा तो रहेगा । आप गुरु महाराज के उपासक हैं, से भी बुलावें तो भी आपको आनन्द ही मानना चाहिये ।
आत्मा शुद्ध, उच्च, परोपआपका कल्याण होकर ही सेवक है, अगर वे साढ़ा नाम