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पन्द्रहवाँ व्याख्यान
आत्मसुख
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महानुभावो !
हमने पचपरमेष्ठी को नमस्कार किया, ॐकार तथा गुरुदेव की वन्दना की, अब उस श्रुतमागर को भी नमन कर लें, जिसकी प्रचड पवित्र लहरें हमारे चित्त को पावन करती हैं और हमारे जीवन को धर्माभिमुख बनाती हैं । श्रुतसागर में भी हम श्री उत्तराध्यय-सूत्र को विशिष्ट भाव से नम - स्कार करें, क्योकि उसके छत्तीसर्वे अध्ययन ने हमको अल्पससारी आत्मा का सुन्दर परिचय दिया है और आत्म तत्त्व की ऊँची विचारणा करने का एक अनमोल अवसर प्रदान किया है ।
आज आत्म-सुख का कुछ विवेचन करना है । वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, वह आपके जीवन को सीधा स्पर्श करनेवाला है, इसलिए उसे खूब ध्यान से सुनिए और उसकी सचाई पर पूरा विचार कीजिए । तुम कहते हो, हम सुनते हैं। इस तरह काम नहीं चलेगा, कारण कि
निष्फल श्रोता मूढ़ यदि, वक्तावचन विलास; हाव-भाव ज्यूँ स्त्रीतणा, पति श्रंधानी पास । वक्ता का वचन-विलास कैसा भी सुन्दर हो, लेकिन अगर श्रोता मूढ़ हो, सारा असार का विचार करनेवाले न हो, विवेकी न हो, उपादेय को ग्रहण करने वाले न हो, तो वह वचन विलास निष्फल जाता है । किसी स्त्री का पति अन्धा हो तो वह उसके सामने चाहे जैसे वह हावभाव करे सब व्यर्थ होता है ।