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आत्मसुख
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गयी पूत और खो आयी खसम' जैसी हालत होती है और बेहद विडवना होती है ।
जिसे हम 'सुखो ससार' कहते है, उसके भीतर कितनी उलझनें और कितनी कठिनाइयाँ होती है और कितने दुःख की आग धधकती रहती हैं, इसका अनुमान आपको 'सेट- सेठानी की बात' से हो जायेगा ।
सेठ-सेठानी की बात
एक सेठ का कारवार बहुत फैला हुआ था । वह उसमे व्यस्त रहता । उसे एक घड़ी की भी फुरसत न मिलती । उधर घर पर सेठानी को कोई खास काम नहीं । घर का सारा काम-काज नौकर करते, इसलिए बड़ी फ़ुरसत में रहती । गुजराती में एक कहावत है, जिसका तात्पर्य यह है कि " निठल्ला आदमी स्व-पर-घाती होता है ।'
निठल्ली होने के कारण सेठानी भटकने लगी । सेट आवे दस बजे, -सेठानी आवे बारह बजे । स्वभाव से सेठ नम्र था, सेठानी उग्र, इसलिए बेचारा कुछ कह न सके । झगडे से घर के दोष जाहिर हो जाने और इज्जत-आबरू धूल में मिल जाने का भी डर था ही । सेठ कभी-कभी परोक्ष रूप से उसे समझाता, पर वह स्वेच्छाचार से ऐसी उद्धत हो गयी थी कि समझाने का कोई असर न पड़ता । एक दिन हिम्मत करके सेठ ने दरवाजे की सॉकल लगा दी और स्वयं अन्दर सो गया ।
अपने वक्त पर सेठानी आयी । दरवाजे को धक्का मारा, पर दरवाजा नहीं खुला | सोचने लगी- " आज यह क्या ? धनी को तो हिम्मत नहीं हो सकती थी। मालूम होता है किसी ने उसे चढा दिया । लेकिन, कुछ फिक्र नहीं, मै सब देख लूँगी ।" उसने बुलन्द आवाज से कहा - " दरवाजा खोलो ।” सेठ ने जवाब दिया- " दरवाजा नहीं खुलेगा । ऐसे घूमनाफिरना बन्द कर और लिखकर दे कि अब कभी घूमने-फिरने नहीं जाऊँगी तभी दरवाजा खुलेगा ।"