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आत्मतत्व-विचार
शुरू कर दिया और बहुरूपिणी-विद्या को याद किया । लक्ष्मण को चारो तरफ रावण ही रावण दिखायी देने लगे। सब रावण अकेले लक्ष्मण पर वाणवर्षा करने लगे। परन्तु लक्ष्मणजी वासुदेव थे। महाबलवान और महाधैर्यवान थे । वे जरा भी हिम्मत नहीं हारे । अपने धनुप पर विद्युतवेग से एक के बाद एक बाण चढा कर छोडते ही गये और रावण के रूपो पर प्रहार करते गये । रावण इस मार को सहन न कर सका। वह समझ गया कि, लक्ष्मण के सामने टिकना बहुत कठिन है, इसलिए अपने मूल स्वरूप मे आकर आखिरी पासा फेंकने का निश्चय किया। उसने अपने देवाधिष्ठित चक्र को स्मरण किया । स्मरण करते ही वह चक्र रावण के हाथ मे आ गया । उसने लक्ष्मण से कहा-"अब भी समझ जा और सीता को मुझे सौप दे, अन्यथा तेरी मौत तेरी राह देख रही है।"
लक्ष्मण ने शात चित्त से हँसते-हँसते जवाब दिया--"यह तेरा लोहे का टुकड़ा मेरा क्या कर सकता है ? छोड़ना हो तो छोड़ !" और, रावण ने जोर से चक्र छोड़ा!
उधर राम की सेना उस चक्र को तोडने के लिए अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रो का प्रयोग करने लगी। लेकिन, जैसे कमलपत्र से जलबिन्दु टकराकर गिर पड़ते हैं, वैसे ही वे अस्त्र-ठास्त्र उस चक्र से टकराकर गिरने लगे और चक्र लक्ष्मण के पास आ पहुंचा। ___ यह दृश्य देखते ही राम तक की सॉस चढ गयी । पर, चक्र का ऐसा नियम है कि वह वासुदेव का कुछ नहीं कर सकता । इसलिए वह लक्ष्मण की तीन प्रदक्षिणा देकर खड़ा हो गया और उनके हाथ में आ गया । अब लक्ष्मण ने रावण से गातभाव से कहा-“सीताजी को सौंप कर तुम अपने राज्य में आनन्द मनाओ। मुझे तेरे राज्य की जरूरत नहीं है । नहीं तो तेरा यह चक्र तेरा ही काल बन जायेगा।"
रावण अब भी अहंकार में था । वह समझता था कि, मेरा चक्र मेरा क्या करेगा ? परन्तु प्रतिवासुदेव अपने ही चक्र से मरता है। लोक के इस