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प्रात्मतत्व-विचार
दोनो पुत्र तेजस्वी, पगक्रमी और बुद्धिनिधान थे। कुशल आचार्यों के पास विविध विद्याएँ और कलाएँ सीखकर विद्यावत और कलावत भी हुए थे।
एक बार ज्वालादेवी ने जिनेश्वर का एक महान् रथ तैयार कराया। तत्र लक्ष्मी देवी नामक दूसरी रानी ने ईर्ष्यावा ब्रह्मरथ तैयार कराया। रथयात्रा का प्रसग आया । लक्ष्मीदेवी ने राजा से मॉग की-"नगर में मेरा रथ पहले चले, नहीं तो मै अपघात कर लॅगी।” ज्वालादेवी ने कहा, "अगर मेरा रय पहले नहीं चला तो मैं आज से ही अन्नजल का त्याग कर देगी। दोनों को आग्रही देखकर राजा ने तीसरा ही मार्ग निकाला कि 'कोई रथ न निकाले ।' दोनो मे से कोई न झुके तो और क्या हो ?
इससे महापद्मकुमार को बडा बुरा लगा। राज्य के कर्ता-हर्ता की माता का ही रथ इस तरह रुक जाये, यह उसमे सहन न हुआ । उसने उसी समय मन में संकल्प किया--"अपनी माता का रथ इस नगर में निरकुग रूप से घुमा कर रहूँगा!" और, उसी रात को वह हस्तिनापुर से चल पड़ा।
सुबह सबको खबर लगी कि, महापद्मकुमार एकाएक चला गया है। लोगो के शोक-सताप का पार न रहा । विष्णुकुमार कुछ अनुचरों को साथ लेकर उनकी तलाश में निकल पडे। लेकिन, कुछ पता नहीं लगा। निराश होकर वापस लौट आये। तब से उनका मन विरक्त रहने लगा और वे सावु-सन्तों का विशेष समागम करने लगे।
महापद्म चक्रवर्ती बनने के लिए सिरजा गया था। इसलिए, उसकी भुजाओं मे अपूर्व बल था। उमने धीरे-धीरे सेना इकट्ठी की और एक के वाट एक देश जीतने लगा। इस तरह उसने ६ खंड पृथ्वी जीत ली
और विजय का डंका बजाता हुआ हस्तिनापुर आया । पद्मोत्तर राजा उसके पराक्रम को जान गये थे। उन्होने बडी गान मे उसका स्वागत