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आत्मतत्व-विचार इच्छानुसार नगर-उद्यान आदि में घूमता रहता और आनन्द से दिन बिताता । एक दिन वह फिरता-फिरता राजमहल के सामनेवाली पानवाले की दुकान पर आकर पान खा रहा था । सुनन्दा की नजर उसपर पड गयी । वह उसे देखकर बडी हर्षित हुई । उसने एक चतुर सहेली द्वारा कहलवाया-"आप यहाँ रोज आकर हमारी सखी को दर्शन दिया करें।” रूपसेन ने प्रसन्नतापूर्वक इसे स्वीकार कर लिया और वह वहाँ रोज आने लगा। ___ अब तक न तो रूपसेन को कोई दुःख था न सुनन्दा को कोई चिन्ता! दोनों अपने-अपने जीवन मे मस्त थे और सुख-चैन से रहते थे, पर अब दोनों को अपनी सुखाय्या जहर-सरीखी लगने लगी; कारण कि दोनो को एक दूसरे से मिलने की प्रगाढ इच्छा लगी थी। दोनों एक दूसरे के मोह में पड़कर दुःख का अनुभव कर रहे थे। इसीलिए शास्त्रकारो ने मोह को सब दुःखो का कारण बताया है।
इस तरह दिन बीतते गये और दोनो को अरस-परस मिलने की उत्कठा तीव्र होती गयी।
इतने में राजा की तरफ से घोपित किया गया कि अमुक दिन कौमुदीउत्सव मनाने के लिए राजा-रानी नगर से बाहर पधारेंगे, उस समय सब नगरनिवासी भी उनके साथ उत्सव मे सम्मिलित हो।
सुनन्दा ने सोचा-"इस अवसर पर रूपसेन से भेट हो सकेगी। उसने रूपसेन को कहलवा दिया-"आप अमुक समय राजमहल के पिछले भाग में आयें, वहाँ ऊपर चढने के लिए रस्सी की सीढी तैयार रहेगी।"
कौमुदी-उत्सव के दिन सुनन्दा सरदर्द का बहाना बनाकर घर पर रही । रूपमेन पेटदर्द का बहाना बनाकर घर रहा । अब कब रात हो और का मिले । यही विचार दोनों के मन मे घुट रहा था।
अत्र बनाव क्या बनता है सो देखिये ! एक जुआरी नुए में बहुत पैसा हार गया और देनदार बन गया)