________________
श्रात्मशान कव होता है ?
१८३
श्रद्धावान्लभते ज्ञानं, तत्परः संयतेन्द्रियः। शानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
'श्रद्धावान जान प्राप्त करता है और ज्ञानी जितेन्द्रिय बनता है और वह (आत्म ) ज्ञान पाकर तुरन्त परमशाति पाता है।'
श्रद्धश्चाश्रद्धानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परोन सुखं संशयात्मनः ॥
-परन्तु अजानी और अश्रद्वालु सशयात्मा विनाश को प्राप्त होता है। गकागील के लिए न यह लोक है, न परलोक, और न उसे सुख ही प्राप्त होता है।
आदमी विद्वान हो, प्रसिद्ध हो, राजदरबार में उसकी प्रगसा होती हो और अपनी कृतियों पर पुरस्कार पाता हो, पर हृदय में श्रद्धा न हो तो वह सब धूल है। वह विद्वत्ता, पाडिल्य, सम्मान, पारितोषिक आदि उसे भवभ्रमण से नहीं बचा सकते ।
नीतिकारो ने कहा है किदुर्जनः परिहर्तव्यो, विद्ययालंकृतोऽपि सन् । मणिना भूपितः सर्पः किमसौ न भयंकरः ? ॥
-विद्या से विभूषित हो तो भी दुर्जन का परित्याग कर देना चाहिए | क्या मणि मे विभूपित सर्प भयंकर नहीं होता ?
श्रद्वाहीन शुष्क तर्कवादी पडितो को दुर्जन समझना । कारण कि, वे कुतर्क करते हुए दुर्दशाग्रस्त फिरते है और दूसरों को भी बिगाड़ते जाते है।
एक तर्फवादी पडित था । वह हर बात में तर्क किया करता था और किसी की बात नहीं मानता था। एक बार वह चला जा रहा था कि सामने से हाथी आया । ऊपर महावत बैठा था, लेकिन हाथी मस्ती मे चढा हुआ होने के कारण काबू में नहीं आ रहा था। इसलिए महावत