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आत्मा का स्वजाना
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गुरु के प्रति श्रद्धा हो, तो उसके सिद्धान्तो को आचरण में लाने के लिए तैयार होओ। इसलिए प्रथम श्रद्धा की पुष्टि की जाती है ।
श्रद्धा किस पर रखी जाये ? यह भी विचारने योग्य है । गलत दवा पर श्रद्धा रखकर उसका सेवन करते रहें तो फायदा तो दूर रहा, नुकसान अवश्य हो । देव, गुरु और सिद्वान्तो के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिये। जो कुदेव, कुगुरु और कुवचन मे श्रद्धा रखकर उनका अनुसरण करते है, उन्हें फायदे के बजाय नुकसान जरूर होता है । इसीलिए शास्त्रकारों ने देव, गुरु और प्रवचन की परीक्षा करने के लिए कहा है और उनमे जो सच्चा लगे उसी का अनुसरण करने का आदेश दिया है ।
सुदेव, सुगुरु और धर्म की श्रद्वा को 'सम्यक्त्व' कहा जाता है । सम्यक्त्व के प्रताप से ही ज्ञान और क्रिया सफल होती है। कोई आदमी चहुश्रुत हो और धार्मिक क्रिया भी करता हो, लेकिन अगर सम्यक्त्व - शून्य हो तो उसका आध्यात्मिक विकास नहीं होनेवाला । शास्त्रकार भगवंत कहते है :
विना सम्यक्त्वरत्नेन व्रतानि निखिलान्यपि । नश्यन्ति तत्क्षणादेव ऋते नाथाद्यथा चमूः ॥ तद्विमुक्तः क्रियायोगः प्रायः स्वल्पफलप्रदः । विनानुकूलवातेन कृषिकर्म यथा भवेत् ॥
- सम्यक्त्व - रत्न विना सत्र व्रत सेनापति रहित सेना की तरह तुरन्त ही नाग पाते हैं । अनुकूल पवन विना जैसे खेती फलदायक नहीं होती : उसी प्रकार सम्यक्त्व विना सब क्रियाऍ प्रायः अल्प- फलदायी होती है ।
श्रावक के चारह व्रत सम्यक्त्व का मूल कहलाते हैं, कारण कि उनमें पहले सम्यक्त्व और तब व्रत दिये जाते है ।