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आत्मा का खजाना
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सद्दालपुत्र ने कहा- "हे भगवन् । मै उस दुष्ट आदमी को जरूर पक, बॉधू और मा "
भगवान् ने कहा--"अगर सब कुछ किसी के उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पराक्रम बिना ही नियति के अनुसार होता है, तो कोई बरतन चुराता नहीं, फोडता नहीं, तेरी स्त्री के साथ भोग भोगता नहीं, तो फिर तृ किसलिए उस पुरुष को पकडे, बाँधे और मारेगा ? तेरे हिसाब से तो सत्र नियत है और किसी के प्रयत्न बिना होता जाता है।"
इन गन्दो ने महालपुत्र की आँखे खोल दी। फिर उसने भगवान् का सिद्धान्त सुनने की इच्छा प्रकट की । भगवान् ने उसे अपना सिद्धान्त अच्छी तरह समझाया । उसने अपनी स्त्री-सहित भगवान् के सिद्धान्त को स्वीकार किया और उनसे श्रावक के बारह व्रत लिये। उन व्रतो का पालन उसने ऐसी दृढ़ता से किया, कि प्रभु महावीर के सुप्रसिद्ध श्रावको में स्थान प्राप्त कर लिया ।
जैमे कमी के कारण आत्मा की जान-दर्शन भक्ति दब जाती है, उसी तरह क्रियागक्ति भी दब जाती है। इसीलिए विभिन्न प्राणियो में उसकी तरतमता दिखायी देती है। जब कर्म के आवरण बिलकुल हट जाते है, तब आत्मा उस शक्ति का स्वामी बन जाता है। परमात्मा
* भगवान् बुद्ध ने भी गोशालक के नियतिवाद को निकृष्ट गिना या । अगुत्तर. निकाय के मक्सलि वर्ग में कहा है-'हे भिन्तुषो । इस अवनि पर मिथ्यावृष्टि-सरीखा कोई अहिनकर पापी नहीं है। मिश्यादृष्टि सब से बडा पापी है, क्योकि व्ह सद्धर्म मे विमुस रमता है । हे भिक्षुभो । ऐमे मिथ्यादृष्टि जीव बहुत हैं, पर मोचपुरुष गोशालक जैसा अन्य का अहित करने वाला में किसी और को नहीं देखना। ममुद्र का जाल जैसे बहुत सी मछलियों के लिए दुखदायी, अहितकर और घातक निकलती है, उसी तरह टम मसार-मागर में मोधपुरुष गोशालक बहुत से जीवों को भ्रम में डालकर दुखदायक पार अहितकर निफलता हे ...मक्वलि गोशालक का वाद सव श्रमणवादियों में निकृष्ट है।"