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ग्यारहवाँ व्याख्यान सर्वज्ञता
महानुभावो !
श्री उत्तराव्ययन सूत्र के छत्तीसवे अव्ययन में वर्णित आत्मा के विषय पर अब तक काफी विवेचन हो चुका है । वह आपको याद होगा । खासखास बातें तो आपको याद होगी ही । सुने हुए विषय का चिन्तन-मनन करते रहने से उसका रहस्य प्रकट हो जाता है । स्वाध्याय के पॉच प्रकारो मे तीसरा प्रकार 'परावर्तना' है। इसका अर्थ यह है कि जो कुछ सीखे हो, उसे स्मरण करते रहना चाहिए। एक गुरु चेले से पूछता है – 'पान क्यों सड़ा ? घोड़ा क्यों अड़ा ? विद्या क्यो भूली ? रोटी क्यो जली ?' चेला होशियार था । उसने चारों सवालो का एक जवाब दिया- 'फेरा न था ।" इसलिए जो कुछ सुनो-सीखो उसे 'फेरते' रहने की जरूरत है ।
पिछले व्याख्यानों में केवलज्ञान अर्थात् सर्वज्ञता का निर्देश हुआ है । आज उसी पर कुछ विवेचन करेंगे ।
'ज्ञान' और 'दर्शन' आत्मा का स्वभाव है, इसलिए आत्मा कभी ज्ञान-दर्शन-रहित नहीं होता । निगोद-अवस्था में ज्ञान न्यूनतम होता है; केवलज्ञानी हो जाने पर अधिकतम । केवलज्ञानी माने पूर्णज्ञानी, सर्वज्ञ । वह त्रिलोक, त्रिकाल के समस्त द्रव्यों को समस्त पर्यायों को युगपत्, एक साथ, जानते है ।
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कर्मवशात् ससार में परिभ्रमण करता हुआ आत्मा 'देव', 'मनुष्य', 'तिर्य च' और 'नारकी' इन चार गतियो मे से किसी-न-किसी में अवश्य