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श्रात्मतत्व-विचार
अनुभवी वृद्ध वैद्य ने कहा तुम तीस दिन के अन्दर अमुक औषध ले आओ तो तुम्हारा पुत्र अच्छा हो जायेगा, और कोई उपाय नहीं है । "* इसलिए मैं औषध की तलाश मे निकला हूँ और गाँव-गाँव भटकरहा हूँ ।"
यह सुनकर केशव को बडा दुःख हुआ । अपना अग धोकर छिडका जाता तो उसका रोग जरूर मिट जाता, पर वह तो सैकड़ो मील दूर था, वहाँ क्या हो ? इतने में देव का तीसरा वरदान याद आया उसने उत्कट इच्छा की कि वह और उसके पिता अपने मूल घर मे पहुँच जायॅ | देव ने जरा-सी देर मे उन्हें वहाँ पहुॅचा दिया | देव निमिषमात्र में यथेच्छ कार्य कर सकते है, यह स्मरण रखना चाहिए ।
केशव ने अपने शरीर का धोवन इस पर छिड़का कि, उसका शरीर मूल रंग में आ गया और उसकी वेदना भी शान्त हो गयी । सब ने केशव को बहुत धन्यवाद दिये और भविष्य में रात्रि - भोजन न करने की प्रतिज्ञाएँ लो । फिर अपने सब कुटुम्बीजनो को साथ लेकर वह अपने राज्य में गया और धर्म का पालन करके सुखी हुआ ।
तात्पर्य यह कि धर्म का आराधन करने के लिए दृढ़ संकल्प और पुरुषार्थ की बड़ी आवश्यकता है ।
पुरुषार्थ की प्रतिष्ठा
व्यवहार में भी पुरुषार्थ की प्रतिष्ठा कम नहीं है । जो काम हाथ मे लिया कि फिर उसके पीछे सतत लगा रहने वाला दुष्कर कार्यों को भी पूर्ण कर या का भागी बनता है । महाभारत में जय प्राप्त करना कोई साधारण काम नहीं था, पर पाडवो ने पुरुषार्थ न छोडा तो अन्त में मफल हुए और दुनिया मे अपना नाम अमर कर गये । श्री रामचन्द्रजी ने लका में विजय कैसे प्राप्त की १ सैन्य मे बानर थे, समुद्र पार करना था : मुकाबले पर महाचली रावण था, फिर भी पुरुषार्थ करते रहे तो विजय की