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श्रात्मा का खजाना
कुछ दिन पहले का किस्सा है, एक आदमी के मन में ऐसा भ्रम होने लगा कि 'मेरे घर के सब लोग दुष्ट हैं।' इसलिए उसने एक रात ईश्वर का स्मरण किया और प्रार्थना की "हे ईश्वर | तू मुझे इन दुष्टो का सहार करने की गक्ति दे ।” और, सब का खून कर डाला । सुबह लोगो को खबर हुई। उन्होने पुलिस को खबर दे दी। पुलिस ने खून के आरोप में उसे गिरफ्तार कर लिया। उसके विरुद्ध कार्रवाई शुरू हो गयी। न्यायाधीश ने पूछा-"तूने इन सब का खून क्यो किया ?" तो उसने जवाब दिया--"ईश्वर ने प्रेरणा की थी, इसलिए मैने खून किये ।" यह सुनकर न्यायाधीश ने कहा-"ईश्वर मुझे यह प्रेरणा कर रहा है कि तुझे फॉसी की सजा दूं, इसलिए तुझे फॉसी की सजा देता हूँ।"
ईश्वर को कर्म का प्रेरक मानने से न्याय और नीति का तथा संयम और सटाचार का कैसा दिवाला निकल जाता है, यह इससे साफ समझ में आ जायेगा । इसलिए अच्छे और बुरे कर्मों का कर्ता आत्मा ही है और उसके फल उसे अवश्य भोगने पड़ते हैं।
वृहदारण्यक उपनिषद् में एक स्थल पर आता है
'यथाकारी यथाचारी तथा भवति, साधुकारी साधुर्भवति, पापकारी पापो भवति, पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन । अथो खल्वाहुः काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति, तत्क्रतुर्भवति, यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते तदभिसंपद्यते ।'
-मनुष्य जैसा काम करता है और जैसा आचरण रखता है, वैसा ही वह बनता है । अच्छा काम करनेवाला अच्छा बनता है, पाप का काम करने वाला पापी बनता है। इसीलिए कहा है कि मनुष्य कामनाओं से बना है । जैसी जिसकी कामना होती है, वैपा वह निश्चय करता है; जैसा निश्चय करता है, वैसा काम करता है, जैसा काम करता है वैसा फल पाता है।