________________
दसवाँ व्याख्यान
आत्मा का खजाना
महानुभावो!
रत्नाकर के समान विशाल जैनश्रत मे बहुत से रत्न पडे हुए हैं। उनमें से एक महारत्न है-श्री उत्तराव्ययनसू त्र ! उसके हर अध्ययन में प्रज्ञा का पवित्र प्रकाश झलझला रहा है और वह मुमुक्षुओ को मोक्ष-साधन का सुन्दर मार्गदर्शन कर रहा है। छत्तीसवे अध्ययन मे अल्पससारी आत्मा का विषय आया। उससे हमने आत्मा के स्वरूप की गहरी विचारणा करनी प्रारम्भ कर दी। तत्सबधी अनेक बातो में आत्मा की अमरता देखी, अखडता देखी, सख्या तथा मूल्य का भी विचार किया और अब उसके समृद्ध खजाने की ओर मुडे हैं। इस समय उसके खजाने की खोज चल रही है।
आत्मा जैसे जान दर्शन-युक्त है, वैसे ही 'वीर्य' से भी युक्त है । वैद्यक' में 'वीर्य' का अर्थ 'शुक्र' होता है, पर यहाँ उसका अर्थ 'क्रियाशक्ति' समझनी चाहिए । इस क्रियाशक्ति द्वारा आत्मा कोई भी क्रिया या प्रवृत्ति करने मे शक्तिमान होता है। खाना-पीना, सोना-उठना, बैठना-चलना, दौडना, विचारना, बोलना, आनन्द-विनोद करना, भोग-विलास करना, धर्म की आराधना करना, आदि क्रियाएँ आत्मा की इस शक्ति में ही संभव होती हैं। यदि आत्मा में यह शक्ति न हो तो इनमें से कोई क्रिया सम्भव न हो सके !