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आत्मतत्व-विचार
नामक ज्ञानाचार है । सूत्रपाठ के अर्थानुसार ही ग्रहण करना अर्थ - नामक ज्ञानाचार है । और, अक्षर तथा अर्थ उभय शुद्ध प्रकार से ग्रहण करना तदुभव-नामक ज्ञानाचार है ।
जैसे बूँद-बूँह से सरोवर भर जाता है, वैसे ही थोड़ा-थोडा सीखते रहने से बहुत ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । इसलिए, ज्ञान प्राप्ति के इच्छुको को अवश्य कुछ शास्त्राध्ययन करते रहना चाहिए। आपने सुना होगा कि -
देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां, षट्कर्माणि दिने दिने ॥
गृहस्थ के छः कर्त्तव्य हैं—१ देवपूजा, २ गुरु सेवा, ३ स्वाध्याय, यानी शास्त्र का अध्ययन, ४ सयम, ५ तप और ६ दान | शास्त्राध्ययन साधुओं का ही नहीं, आपका भी नित्य कर्त्तव्य है । आप अधिकार के अनुसार ग्रन्थ पढ़ सकते हैं ।
अवधिज्ञान आदि के भेद
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अवधि, मन पर्यव और केवल ये तीनों उच्चकोटि के ज्ञान हैं । वे मनुष्यो में सयम और तपके प्रभाव से प्रकट होते है । देव तथा नारकी जीवों को अवधिज्ञान भवप्रत्यय, यानी उस भव के निमित्त से सहज, होता है । अवधिज्ञान का उपयोग रखने से आत्मा दूर सुदूर के रूपी 'पदार्थों को देख-जान सकता है |
अवधिज्ञान के मुख्य ६ भेद है - अनुगामी या अवधिज्ञानी पुरुष के साथ जानेवाला, अननुगामी यानी साथ न जानेवाला, वर्धमान यानी उत्तरोत्तर वृद्धि पाने वाला, हीयमान यानी उत्तरोत्तर कम होने चाला, प्रतिपाती यानी आने के बाद चला जाने वाला, और श्रप्रतिपाती यानी आने के बाद हमेशा रहनेवाला ।