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आत्मा का खजाना
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अनेक व्यक्तियों की अपेक्षा से वह आदि और अन्त सहित नहीं हैं, यानी अनादि तथा अपर्यवसित है । क्षेत्र की अपेक्षा से पॉच भरत और पॉच ऐरावत में सादि - सपर्यवसितश्रुत है और महाविदेह में अनादि-अपर्यवसितश्रुत है । काल की अपेक्षा से अत्सर्पिणी और अवसर्पिणी मे सादि सपर्यवसितश्रुत है और नो उत्सर्पिणी- नोअवसर्पिणी मे ( महाविदेह क्षेत्र में ऐसा काल है ) अनादि- अपर्यवसित है । भाव की अपेक्षा से भव्य जीवो के लिए सादि सपर्यवसित श्रुत है, अभव्य जीवो के लिए अनादि अपर्यवसित श्रुत है । जिसमें समान आलापक हो, उस दृष्टिवाद ( वारहवें अंग ) के श्रुत को गमिकश्रत कहते हैं, और जिसमें समान आलापक नहीं है, उस दृष्टिबाट के सिवाय अन्य श्रुत को श्रमिक त कहते है ।
श्री गौतम स्वामी आदि गणधर भगवतों के रचे हुए श्रुत को अंगप्रविप्रश्रुत कहते हैं । और, श्री भद्रबाहु स्वामी आदि स्थविर भगवतो के रचे हुए श्रुत को गवाह्यत कहते हैं । द्वादशाग अग प्रविष्टश्रुत है, और उपाग, पयन्ना, आदि अंगवाह्यश्रुत हैं ।
इसलिए उसे 'श्रुत' कहते है । इसलिए उसे 'श्रुतसागर' कहा का आचार है, उसे श्रुतज्ञान के
शास्त्रो का ज्ञान सुनने से मिलता है, हमारा श्रुत सागर के समान विशाल है, जाता है | ज्ञान से सलग्न जो आठ प्रकार अन्तर्गत समझना है ।
श्रुत-योग्य काल मे पढना काल नामक ज्ञानाचार है । गुरु और शास्त्र से विनय श्रुतपूर्वक ग्रहण करना, विनय - नामक ज्ञानाचार है । श्रुत गुरु और शास्त्र के प्रति बहुमान पूर्वक ग्रहण करना बहुमान - नामक ज्ञानाचार है । श्रुत उपधान पूर्वक ग्रहण करना उपधान नामक ज्ञानाचार है । उपधान तो आजकल खूब हो रहे हैं, इसलिए उनका स्वरूप तो आप जानते ही होंगे ।
ज्ञान देनेवाले गुरु का नाम, जाति, आदि छिपाना अनिवता - नामक ज्ञानाचार है । सूत्रपाठ के अक्षरों के अनुसार ही ग्रहण करना व्यजन