________________
आत्मा का खजाना
११५ जानादि सत्र लब्धियाँ साकार उपयोग वाले आत्मा को होती हैं, पर अनाकार उपयोगवाले आत्मा को नहीं होती।
जान पाँच प्रकार का है : (१) मति, (२) श्रुति, (३) अवधि, (४) मन.पर्यव और (५) केवल ।
स्पर्शनेद्रियादि पाँच इन्द्रियो और छठे मन द्वारा वस्तु का जो अर्थाभिमुख (अर्थ के समीप ले जानेवाला) निश्चित बोध हो, उसे 'मतिजान' कहते हैं । उसका दूसरा 'आभिनिबोधिक' नाम है। __शब्द के निमित्त से इन्द्रियो और मन द्वारा जो मर्यादित ज्ञान होता है उसे 'श्रुतिज्ञान' कहते हैं।
इन्द्रिय और मन की मदद के बिना, आत्मा को प्रत्यक्ष होने वाला अमुक क्षेत्रवर्ती, अमुक कालवी ज्ञान, 'अवधिज्ञान' कहलाता है। __ इन्द्रिय और मन को मदद के बिना आत्मा को होनेवाला मन के पर्यायो सम्बन्धी जान 'मनःपर्यय' या 'मनःपर्यवज्ञान' कहलाता है ।
जब केवलजान उत्पन्न होता है, तब मति, श्रुति, अवधि और मनः पर्यव ज्ञान नहीं होते, अर्थात् वह एक होता है। उस समय ज्ञानावरणी कर्म का मल जरा भी नहीं होता, वह पूर्णतम निर्मल होता है। उसमे किसी प्रकार की अपूर्णता नहीं होती, वह परिपूर्ण होता है। और, आने के बाद चला नहीं जाता, यानी अनन्त होता है ।
जिसे केवलज्ञान हो जाये, वह आत्मा उसी भव मे सकल कर्म का क्षय करके मोक्ष जाता है, इसलिए सब मुमुक्षुओ का ध्येय इस केवलज्ञान की प्राप्ति होता है।
मिथ्यात्वी का मतिज्ञान 'मतिअज्ञान' कहलाता है, मिथ्यात्वी का अत जान 'श्रुतअज्ञान' कहलाता है और मिथ्यात्वी का अवधिज्ञान 'विभगजान' कहलाता है । मिथ्यात्वी को मनःपर्यव अज्ञान या 'केवल. अज्ञान' सभव नहीं है।