________________
१२८
आत्मतत्व-विचार
उसके ऊपर 'अक्ल की दुकान' ऐसा बोर्ड लगा हुआ था। उसने आज तक बहुत प्रकार की दुकाने देखी यो, पर 'अक्ल की दुकान' कभी नहीं देखी थी। इसलिए वह आश्चर्य और कुतूहल से दुकान पर पहुंचा। __ दुकान में एक आदमी बैठा-बैठा पढ़ रहा था। उसके इर्द-गिर्द अलमारियों में किताबो के अलावा कुछ नहीं था। दुकानदार ने पूछा"क्यो भाई ! क्या चाहिए ?” मंत्री ने कहा-"क्या आप अक्ल बेचते है ? क्या अक्ल भी खरीदी जा सकती है ?' दुकानदार ने कहा-"जरूर हमारे यहाँ से खरीदी जा सकती है। कहिये आपको कितने वाली अक्ल चाहिये ? न्यूनतम कीमत पच्चीस रुपये है, ज्यादा तो चाहिये जितनी ।" ।
इस जवाब को सुनकर मंत्री ने विचार किया-"मेरे पास सवा माँ रुपये हैं। उसमें से पच्चीस रुपये वाली एक अक्ल ली जाये।" उसने दुकानदार से कहा-"मुझे पञ्चीस रुपये वाली अक्ल दीजिये।"
दुकानदार ने कहा-"रुपये पहले दीजिये, माल बाद में मिलेगा।" इसलिए मत्री ने पच्चीस स्पये नकद गिन दिये। दुकानदार ने पैमे गल्ले मे रख लिये, फिर मंत्री से कहा-"सफर में अकेला नहीं जाना चाहिए !" यह सुनकर मंत्री को लगा कि, पैसे पानी मे गये। इसने इसमें नयी बात क्या कही ? पर, हारा जुवारी दूना खेलता है, इस न्याय मे उसने दूसरे पच्चीस रुपये देकर कहा-"दूसरी अक्ल टे दीजिये ।" उसने सोचा-"इस बार पहले की कसर निकल जायेगी।"
दुकानदार ने उन पच्चीस रुपयों को गल्ले में रखकर कहा-"पॉच आदमी कहे, वह बात माननी चाहिए।" परन्तु मंत्री को इस अक्ल में भी कुछ खास नया नहीं लगा । इसलिए तीसरे पच्चीस रुपये देकर कहा"इस बार कोई वढिया अक्ल टीजिये।" उसने रुपये ठिकाने रखकर कहा "जिस जगह सब स्नान करते हो, वहाँ स्नान न करना चाहिये ।" ।
"इसमें इसने क्या अक्ल दे डाली !" यह सोच कर मंत्री को बडी कसमसाह्ट हुई। लेकिन, एक बार और आजमाया जाये, यह सोच कर