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श्रात्मा का खजाना
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आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं, अर्थात् वे किसी समय आत्मा से अलग नहीं होते, इसीलिए आत्मा को ज्ञान दर्शन युक्त कहा है। यहाँ किसी को ऐसा प्रश्न भी हो सकता है, कि 'अगर आत्मा अकेला ही है, तो माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी, परिवार, सगे-सम्बन्धी, इष्टमत्र, आदि' क्या है ? क्या वे अपने नहीं है ?' तो वहाँ यह समझना कि 'सेसा मे चहिरा भावा, सवे संजोगलक्खणा' - ज्ञान और दर्शन के सिवाय सब भाव वहिर्भात्र है; कारण कि वे जन्म के सयोग से प्राप्त हुए है; यानी इस जन्म तक के लिए है; दूसरे जन्म में साथ नहीं आने वाले । जिन्हे आप 'नेरा-मेरा' कहते है और जिन्हें पालने, पोसने और खुश रखने के लिए न करने योग्य काम भी करने लगते है, वे आपको दो कदम पहुँचाकर लौट आते है । उनमे से कोई साथ नहीं आता । तब क्या धनमाल साथ आता है ? गहनो की डिबियॉ, नोटो के बडल, आलीशान इमारतें, सत्र वहीं पड़े रह जाते है । आत्मा इन वस्तुओ के मोह से दुःखी होता है और दुर्गति में जाता है । इसलिए ये सब सयोग आत्मा को दुःखदायी होने के कारण त्याज्य हैं ।
आत्मा अकेला आया है और अकेला जायेगा; इस तथ्य मे कभी कोई अंतर नहीं पड सकता ।
आत्मा की ज्ञानशक्ति बहुत बड़ी है । लोग अणुत्रम और अणुशास्त्रों की बात सुनकर चकित हो जाते हैं। पर, उनका आविष्कार किया किसने ? जानने या और किसी ने ?
स्फोट करने की अद्भुत् शक्ति करोड़ों वर्ष के सचित कर्मों को
अणुशक्ति में पुद्गल के अणु का मानी जाती है, पर आत्मा ज्ञानशक्ति से क्षणमात्र में भस्म कर देता है । कहा है कि
ज्ञानी सासोसास में, करे कर्म नो खेह, पूर्व कोडी वरसां लगें, अज्ञाने करे तेह,