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श्रात्मा का खजाना
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हमारे मकान के नीचे जो नट लोग तमात्रा दिखला रहे थे, उनकी पुत्री की शादी मेरे साथ हो तो हॉ, नहीं तो ना !"
पिता ने कहा- "अपने यहाँ सुन्दर कन्याओं की क्या कमी है कि, तू उस नटपुत्री से शादी करने की इच्छा करता है ?" पर, इलापुत्र ने न माना । आखिर धनदत्त सेठ ने नटों को बुलाकर कहा कि- "तुम चाहे जितना धन ले लो, पर अपनी पुत्री को मेरे पुत्र के साथ ब्याह दो ।" नटो ने कहा - " सेठ ! हम अपनी पुत्री की चिक्री नहीं करना चाहते। लेकिन, अगर आपका पुत्र हमारे साथ रहे और हमारी सब विद्याएँ सीखकर किसी राजा को रिझाये और उससे बड़ा इनाम पाये, तो उसके साथ अपनी पुत्री की शादी कर देंगे ।"
इस शर्त को अपमानजनक मानकर धनदत्त सेठ ने साफ इनकार कर दिया। पर, इलापुत्र का मन नटी से चिमटा हुआ था, इसलिए उसने यह गर्त मजूर कर ली और माता-पिता और धन-वैभव का त्याग करके, नटनी के साथ चल पड़ा। मोह से मनुष्य के मन कैसी व्याकुलता पैदा हो जाती है, उसका यह नमूना है ।
नटी के साथ रहकर, इलापुत्र उनकी सब विद्यायें सीख गया और राजा को रिझाने के इरादे से वह बेनातट नगर में आया । वहाँ राजा की आज्ञा लेकर राजमहल के निकटस्थ चौक में खेल करने लगा । आजकल 'सर्कस' का खेल देखकर लोग दॉतो मे उँगली दबा लेते है, पर हमारे नटों के खेल उनसे बहुत बढकर थे। बॉस पर बॉस बॉधे और उस पर भी बॉस बाँधे, फिर सर पर सात घड़ा एक के ऊपर एक लेकर उस पर चढ़ जाये। उसमें न उसका पग डिगे न एक भी बेड़ टूटे | उसी तरह हाथ में छुरी, बाँका या तलवार लेकर बॉस पर चढ कर उसके अनेक प्रकार के खेल दिखलावे । इलापुत्र भी ऐसे अद्भुत खेल करने लगा । राजा और रानी उन खेलो को देखने के लिए झरोखे पर आकर बैठे और लोग चौक में इकट्ठे हो गये ।
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