________________
आत्मा का खजाना
१३१
जान होने में भी कुछ निमित्त चाहिये; वह इलापुत्र को मिल गया। वह विचार करने लगा-"स्वय जवान है, सामने रूपवती स्त्री है और एकान्त का योग है, फिर भी उनका एक रोम भी नहीं हिलता और मैं एक नटनी के प्रेम मे पागल बनकर जगह-जगह भटक रहा हूँ। धिक्कार है मुझको ! लानत है, मेरी इस मोहान्ध दशा पर ! मै इस नीच राजा को रिझाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा रहा हूँ, यह भी मूर्खता की 'पराकाष्टा है । मैं बहुत भूला, पर अब अपनी बाजी सुधार लॅगा !" __ इलापुत्र को भोग की निस्सारता स्पष्ट हो गयी और आत्मा के प्रति कर्तव्य का ज्ञान हुआ। इसी को कहते है-सच्चा जान ! ज्यो-यो इस जान की झलझलाहट बढती गयी, त्यों-त्यों उसकी कर्मराशि नष्ट होने लगी। अभी वह बॉस पर ही था, लोग उसे खेल करता हुआ देख रहे थे, इतने में रंग बदल गया-उपार्जित किये हुए उसके कर्म नाश को प्राप्त हुए और उसे केवलजान प्रकट हो गया। उसी क्षण चमत्कार खड़ा हुआ-वास की जगह सिंहासन बन गया और इलापुत्र केवली उसपर विराजमान सबको नजर आने लगे। देवो ने वहाँ ज्ञानमहोत्सव करना शुरू कर दिया।
यह देखकर रानी विचार करने लगी-'इतनी रूपवती रानियों के अन्तःपुर में होते हुए भी राजा का मन एक नटपुत्री में गया । यह ससार ही असार है।' इस तरह उसके हृदय मे ज्ञान की ज्योति प्रकटी और वह प्रति क्षण बढने लगी। उससे उसके भी घातिया कर्मों का नाश हुआ और उसे भी केवलज्ञान हो गया। ___यह दृश्य देखकर राजा का हृदय भी बदला । उसे अपनी अधमता 'पर तिरस्कार की भावना जगी। उसकी आँखो में से पश्चात्ताप के आँसू टप-टप टपकने लगे। उसे भी यह ससार असार भासित हुआ और उसमे से आत्मा को उबार लेने की भावना प्रकटी। उस भावना के प्रताप से वह भी कुछ ही क्षणो में घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञानी बना।