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आत्मतत्व-विचार साधन है। 'पढमं नाणं तओ दा' 'नाणकिरियाहिं मोक्खो', 'सम्यक ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष', आदि सूत्र जिन-प्रवचन में प्रचलित हैं । उनका अर्थ यह है कि ठया, सयम या किसी प्रकार की धार्मिक क्रिया करनी हो तो पहले ज्ञान चाहिए । ज्ञान न हो तो ये क्रियाएँ ठीक नहीं हो सकती, न अपना सच्चा फल प्रदान कर सकती हैं।
'नीवो पर दया करना' यह तो गुरुमुख से सुना, परन्तु जीव किसे कहा जाता है ? अजीव किसे कहा जाता है ? जीवका लक्षण क्या है ? जीव कितने प्रकार के हैं ? यह न जाना जाये, तो जीव-दया कैसे पाली जा सकती है ? इसी प्रकार समय तथा दूसरी सब क्रियाओ के विषय में समझना चाहिए। सथारापोरिसी में एक गाथा आती है :
एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ। • सेसा मे बहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥
इस गाथा का अर्थ पूरे रूप में समझने योग्य है । आत्मा का अनुशासन कैसे करना-आत्मा को ठिकाने किस तरह रखना ? इस सम्बन्ध में यह गाथा कही गयी है। वहाँ पहले यह चिन्तन करना है कि 'एगो हं नत्थि मे कोई'-~-मै इस जगत् मे अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है । 'नाहमनस्ल कस्सई'-उसी प्रकार में भी किसी का नहीं हूँ। निनके सगेसम्बन्धी मर गये हैं, वे टीन है, रक है, लोग ऐसा विचार करते है, पर यहाँ तो ऐसी दीनता से यह विचार नहीं करना है। यहाँ तो आत्मा की सच्ची परिस्थिति समझकर विचार करना है। इसीलिए कहा है कि 'एवं श्रदीणमणसो अप्पाणमणुसासई-इस तरह अदीन मन से आत्मा का अनुशासन करे ।
फिर जो चिन्तन करना है, सो इस गाथा में कहा है-'एगो मे सासओ अप्पा'-एक मेरा आत्मा ही शाश्वत है। यह आत्मा कैसा है ? 'नाणदंसणसंजुओ'-ज्ञान और दर्शन से युक्त है । ज्ञान और दर्शन