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आत्मतत्त्व-विचार रूप, रंग, लावण्य, आकृति और बंधारण में पृथक-पृथक जाति के होते है, इसलिए आत्मा देह में उत्पन्न नहीं होता, बल्कि देह को बनाता है और पूर्व कर्म अनुसार उसका निर्माण करता है।
देहधारण क्रिया
आत्मा की यह देहधारण-क्रिया वस्त्र-धारण नैसी है। उसके लिए भगवद्गीता में कहा है कि
* जैन-शास्त्रों में प्राकृति के लिए सस्थान शब्द नियोजित किया गया है और उसके ६ प्रकार माने जाते है, (१) समचतुरन्त्र-सव अग यथापरिमाण और लक्षणयुक्त (२) न्यग्रोधपरिमडल-नामि के ऊपर का भाग यथापरिमाण और लक्षणयुक्त पर नीचे का भाग परिमाण और लक्षण से रहित (३) सादि-नाभि से नीचे के अंग यथापरिमाण और लक्षणयुक्त, पर ऊपर के अग परिमाण और लक्षण से रहित (४) वामन-हाथ, पग, मस्तक, सिर, यथापरिमाण और लक्षणयुक्त, पर दूसरे अंग परिमाण और लक्षण से रहित (५) कुव्न-हाथ, पग, मस्तक और सिर परिमाण
और लक्षण से रहित, पर दूसरे अग यथापरिमाण और लक्षण से युक्त (६) हुडकशरीर के सब अग परिमाण और लक्षण से रहित ।
जैन-शास्त्रों में शरीर के वधारण के लिए 'सहनन'-शब्द प्रयुक्त हुया है। उसके ६ प्रकार माने गये हैं (१) वज्र-ऋषभ-नाराच सहनन-जिन सधियों में मर्कटवध (एक प्रकार का बन्धन); उसके चारो तरफ पड़ी और उसके बीच में वन-सरीखी कील लगी हुई हो (२) ऋषभ-नाराच सहनन-जिसमें कील न हो पर मर्कटवध और पट्टी हो (३) नाराच-सहनन जिसमें केवल मर्कटवध हो। (४) अर्धनाराच-महननजिसमें अर्ध मर्कटवध हो (५) कीलक-सहनन-जिसमे मर्कटबध बिलकुल न हो लेकिन दो सधियाँ कीलों से जडी हों और (६) छेवठु-सहनन-जिसमें संधियाँ मात्र एक दृसर से सटी हुई हो । तीर्थकर और चरमशरीरी प्रथम सहनन वाले होते हैं