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आत्मतत्त्व-विचार
एक आत्मा का सिद्धान्त समझाने के लिए कुछ लोग यह कहते हैं कि 'चन्द्र एक होते हुए भी, जैसे उसका प्रतिबिम्ब अनेक जलागयो मे पडता है, उसी तरह आत्मा मूल स्वरूपसे एक होते हुए भी, उसका प्रतिबिम्ब भिन्न-भिन्न जीवो में पड़ता है इसका अर्थ तो यह हुआ कि सब जीवो मे जो आत्मा प्रतीत होता है, वह सच्चा नहीं है; बल्कि भासमात्र है । यह विचारने की बात यह है कि, अगर सत्र जीवो में रहनेवाली आत्मा सच्ची न हो और भासमात्र हो, तो वह आत्मा का कार्य किस तरह कर सकेगी ? जल में रहनेवाला चन्द्र का प्रतिविम्ब क्या सच्चे चन्द्र का कार्य कर सकता है ? पर यहाँ तो हर आत्मा आत्मा का कार्य करती दिखलायी देती है। इसलिए, यह मान्यता निराधार है ।
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अगर कहने का आशय यह हो कि, मूल आत्मा तो एक ही है, पर सत्र जीवो में उसका अग होता है; तो यह कथन भी योग्य नहीं है, कारण कि, इस तरह तो सब आत्माओं की स्थिति एक ही प्रकार की होनी चाहिए । एक कारखाने में से निकला हुआ, पेटेंट माल एक सरीखा होता है या तरहतरह का ? अमुक छाप डोरे की कोई गड्डी ले, तो उसमें से डोरा सरीखा ही निकलेगा । इस तरह सब आत्मा एक आत्मा के अंश हो तो स्वभाव, प्रकृति, सुख-दुःख का अनुभव, सत्र समान रूप से ही हो, लेकिन वस्तु स्थिति कुछ और ही देखने में आती है । इसलिए, सब आत्माओं को एक ही आत्मा के अंश नहीं माना जा सकता |
इस प्रकार एकात्मवाद या अद्वैतवाद अपनी बुद्धि को सन्तोप नहीं दे सकता; इसलिए उसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? बुद्धिमान मनुष्य तो यही कहेंगे कि जब हरएक भूत, सत्त्व या प्राणी का अपना व्यक्तित्व
प्रतिष्ठित । जलचन्द्रवत् ॥
* एक एव हि भूतात्मा भूते भूते एकवा बहुवा चैव दृश्यते
- ब्रह्मविन्दु उपनिषद्