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आत्मा की संख्या
८७ होता है, अपनी 'खासियत' (गुण) होती है, उसे सुख-दुःख का अनुभव भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है, तब उनमें से प्रत्येक में अलग ही आत्मा मानना चाहिए । ज्ञानी भगवतो का वचन भी ऐसा ही है । वे कहते है
पुढवी जीवा पुढो सत्ता, आउजीवा तहाऽगणी । वाउजीवा पुढो सत्ता, तण-रुक्खा सवीयगा ॥ अहावरा तसा पाणा, एवं छकाय आहिया । एयावर जीवकाए. नाचरे कोइ विज्जइ ॥
- सूयगडाग सूत्र, १, ११ । --पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और बीजसहित तृण, वृक्ष आदि वनस्पतिकाय ये सब जीव पृथक-पृथक है । अर्थात् ऊपर से एक आकार वाले दिखते हुए भी वे सब अलग-अलग व्यक्तित्व रखते है।
उक्त पॉच स्थावर-जीवो के उपरात दूसरे त्रस-प्राणी भी हैं | सबको षनिकाय कहा है। इस ससार में जितने भी जीव है, उन सब का समावेग इस पनिकाय में हो जाता है। इनके सिवाय और कोई जीवनिकाय नहीं है।
जिन-गासन में प्राणियो के विषय में जितना विज्ञान है, उतना अन्यत्र नहीं मिलेगा । प्राणी कितने प्रकार के होते हैं ? उनमें से हर एक के शरीर का जघन्य और उत्कृष्ट परिमाण कितना है ? उनमें से हर एक का आयुष्य कितना है ? आदि समस्त तथ्य आपको जिन-गासन में मिलेगी। श्री जीवा जीवाभिगम-सूत्र और श्री पन्नवणा-सूत्र इस विषय के महान् ग्रन्थ है । श्री भगवती जी आदि में भी तत्सम्बन्धी अनेक प्रश्नों पर चर्चा की गयी है । उन सब का सार आपको संक्षेप में मिल जाये इसके लिए जीव-विचार और दडक-जैसे प्रकरण ग्रन्थ भी रचे गये हैं। आप में से कुछ ने उनका अध्ययन किया होगा, जिन्होने न किया हो वे रोज एक-एक टोदो गाथाओं का अध्ययन जरूर करे ।