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आत्म का खजाना
उत्पत्ति के क्रम से देखें तो दर्शन पहला है ! और जान, दूसरा, महत्त्व की दृष्टि से जान प्रथम है, दर्शन द्वितीय !!
जान-प्राप्ति का निमित्त मिलने पर, हमे 'कुछ होने का जो अस्फुट या सामान्य बोध होता है, उसे दर्शन कहते हैं, और उसके रूप, रग, अवयव, स्थान वगैरह का जो विशेष बोध होता है, उसे ज्ञान कहते हैं । ज्ञायते अनेन अस्माद् वा इति ज्ञानम्-जिसके द्वारा या जिससे जान सके, वह ज्ञान है । इस व्याख्या के अनुसार दर्शन को भी ज्ञान का ही एक भाग कह सकते है; कारण कि वह वस्तु के ज्ञान होने में उपयोगी है। ___ जानना एक प्रकार का चैतन्यव्यापार है; इसलिए वह चेतनायुक्त द्रव्य मे ही संभव है । ऐसा चेतनायुक्त द्रव्य आत्मा है, इसलिए जानने की क्रिया आत्मा मे ही सभव है। गद्दी रुई की हो, मगर उसकी कोमलता पलंग को नहीं मालूम पडती । मिठाई चाहे जैसी स्वादिष्ट हो, पर चम्मच को उसका स्वाद नहीं आता । फूल चाहे जैसा सुगधपूर्ण हो, पर फूलदान को उसका भान नहीं होता । मुकुट, हार आदि चाहे जितने सुघर हो, पर मूर्ति को उनकी सुन्दरता की जानकारी नहीं होती। वीणा में स्वर की चाहे जितनी मधुरता हो, पर दीवार को उसका अनुभव नहीं होता।
चेतनाव्यापार को उपयोग कहते हैं। लेकिन, उसका जो अर्थ आप समझते हैं, उस अर्थ में नहीं । एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। इस पर एक दृष्टान्त सुनिये
* सामान्नगहणं भावाणं नेय कटु श्रागारं ।
अविसेसिऊण अत्ये देसणमिइ वुच्चए समये ।। 'स्फुट आकार किए बिना नथा अर्थ की विशेषता रहित भावों का जो ग्रहण होता है उसे शास्त्रों में दर्शन कहा है।
आधुनिक मानसशास्त्र इस क्रिया को 'परसेप्शन' कहता है।