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आत्मा का मूल्य
१०१ नित्यमित्र ने पूछा-"पर बात क्या हुई है ?” कर्मचारी ने कहा"आज राजा के कुँवर को अपने यहाँ जीमने बुलाया था। वह अत्यन्त सुन्दर आभूपणो से सज होकर मेरे यहाँ आया था। यह देखकर मेरा मन ललचाया और उसका खून करके मैंने सब आभूषण उतार लिये । पर, अब मुझे राजा का डर लगता है; मुझे बचाओ !”
नित्यमित्र ने कहा-"तुमने तो गजब कर दिया ! राजकुमार का खून छिपा कैसे रह सकता है ? अभी राज के सिपाही छूटेंगे और वे घरघर की तलाशी लेगे । उस वक्त तुम मेरे यहाँ पाये गये, तो मेरी क्या दशा होगी ? इसलिए तुम तुरत यहाँ से चुपचाप चले जाओ और दूसरी किसी जगह आश्रय लो!"
कर्मचारी ने आश्रय देने के लिए उसे बड़ा समझाया; पर वह सत्र समझाना व्यर्थ गया। जब कर्मचारी उसके यहाँ से चला तो उसने अपने घर का दरवाजा बन्द कर दिया और मुंह से "आवजो" तक न कहा । उसे तो यही लगा कि यह बला बडी मुश्किल से टली है।
कर्मचारी ने समझ लिया कि, यह मित्र पूरा मतलबी है। वहाँ से निकल कर वह पर्व-मित्र के यहाँ गया और सब हाल कहकर आश्रय देने का अनुरोध किया। तब पर्व मित्र ने कहा--"तुम्हारी मदद करना मेरा फर्ज है, पर अपने घर में तुम्हे छुपाने लायक स्थान नहीं है । मैं बाल-बच्चे चाल आदमी ठहरा, राजा का मुझ पर कोप उतरा और मैं जेल गया तो मेरे बीबी-बच्चों का क्या होगा ? इसलिए तुम किसी और जगह इन्तजाम कर लो।"
कर्मचारी ने कहा- "इस वक्त तो मेरी बुद्धि चकराई हुई है। कहाँ जाऊँ ? क्या करूँ ? यह सूझता ही नहीं है ? इसलिए तू ही भला बनकर आश्रय दे ।” पर्व-मित्र टस-से-मस न हुआ। इसलिए, कर्मचारी को प्रतीत हो गया कि, यह भी पूरा स्वार्थी है।