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श्रात्मतत्व-विचार
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अत्र संख्या पर आये। पर, सख्या-विषयक हमारी मान्यता बड़ी सकुचित है— कूपमडूक-जैसी ! एक बार किसी सरोवर का मेंढक कुऍ में आ गया । वहाँ एक मेंढक स्थायी रूप से रहता था । उसने सरोवर के मेंढक से पूछा - "माई | तू कहाँ से आया है ?” उसने जवाब दिया" सरोवर से” । इससे कुऍ के मेंढक की समझ में कुछ न आया । इसलिए उसने पूछा - " सरोवर का अर्थ क्या " दूसरे ने जवाब दिया- " सरोवर याने पानी का विद्याल जत्था " । कुऍ के मेंढक ने पूछा - "विशाल माने कितना ? क्या इस कुएँ के चौथे भाग के बराबर होगा ?" सरोवर के मेढक ने ठडे कलेजे से जवाब दिया- "नहीं, इससे बहुत बडा ।" तब कुऍ के मेढक ने फिर पूछा—“कुऍ के आधे भाग के बराबर होगा ?" दूसरे ने पहली तरह ही जवाब दिया- "नहीं, उससे बहुत बड़ा ।” इससे मेंढक को आश्चर्य हुआ और कहने लगा "तब क्या बराबर होगा ?” दूसरे ने बिलकुल ठडे कलेजे से कहा – “ अरे भाई ! इससे भी बहुत बडा ।” यह सुनकर कुऍ के मेंढक ने कहा - "यह तो तू मुझे बना रहा है । इस सारे कुऍ से ज्यादा बडा पानी का जत्था हो ही नहीं सकता । मैने अपनी तमाम जिन्दगी में इससे बडा पानी का जत्था देखा ही नहीं है ।"
कुऍ के
वह सारे कुऍ के
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आपसे पूछें कि 'बडी संख्या कौन-सी है ?' तो आप करोड़ या अरब कहेंगे। किंसी ने लीलावती आदि पुराने गणित देखे होगे तो कहेगा कि 'परार्ध' पर, यह कोई सख्या का अन्त नहीं है । उसमें तो केवल अठारह अक होते है, जबकि सख्या तो उसमें बहुत बढी हुई है । शास्त्रकारो ने १९४ अर्को की संख्या को शीर्ष प्रहेलिका कहा है और ज्योतिपकरडक
१ - शीर्षप्रहेलिका की मख्या नीचे लिखे अनुसार समझना .
७५८, २६३, २५३, ०७३, ०१०, २४१, १५७, ६७३, ५६६, ६७५, ६६६, ४०६, २१८, ६६६, ८४८, ०८०, १८३ २६६ । इम तरह कुल ५४ अक और इस पर १४० शून्य यानी कुल अक ११४ ।