________________
श्रात्मा की अखण्डता
आता है । यह वस्तु थी, वह वस्तु है, यह वस्तु होगी, यह सत्र काल के आधार से ही कहा जाता है ।
૭૭
(५) पुद्गलास्तिकाय अर्थात् पूरण और गलन स्वभाववाला अणु और स्कन्ध रूप वर्णादि से युक्त द्रव्य ! पूरण अर्थात् इकट्टा होना और गलन अर्थात् अलग होना । वर्णादि यानी वर्ण, गध, रस, स्पर्श और शव्द ! तात्पर्य यह कि, जो द्रव्य इकट्ठा भी हो सकता है, अलग भी हो सकता
तथा जिसको रूप होता है, वास होती है, स्वाद होता है, स्पर्श होता है तथा जिसमे गड यानी ध्वनि ( साउड ) उत्पन्न होती है, उसे 'पुद्गल - द्रव्य' (मैटर ) समझना चाहिए ।
ये पॉचो द्रव्य जड अर्थात् चेतनारहित हैं और छठा द्रव्य आत्मा चैतन्ययुक्त है । इस आत्मा के सम्बन्ध में हमें काफी विवेचन करना है, परन्तु यहाँ प्रसगवा इतना बता दें कि, आत्मा को फॅसानेवाला पुद्गल है। आत्मा को फॅसानेवाले पुद्गल हैं
अच्छा शब्द, अच्छा रूप, अच्छी गध, सुन्दर भोजन, प्रिय स्पर्ग आत्मा को फॅसाते हैं । खराब, कड़वी या दुर्गंधपूर्ण वस्तु आत्मा को फॅसा नहीं सकती । आपको कोई कठोर स्पर्शवाली खाट पर सुलावे, तो सोयेंगे क्या ? सुकुमारी की बात तो बहुत मशहूर है ही । धनवान की पुत्री होते हुए भी वह कुरूप थी । उसके साथ शादी करने को कोई तैयार नहीं था । अरे | उसके नजदीक जाने के लिए भी कोई राजी नहीं था । आखिर धनिक पिता ने उसे एक रास्ते चलते भिखारी के साथ व्याह किया । उस भूखे, बेहाल, घरबारहीन, भटकते भिखारी को सेठ ने धन १ – मद्दधयार उज्जोओ पहा छायाऽऽतवेइ वा ।
"
वण्ण रसगध-फासा, पुग्गलाय तु लक्सण ॥
- श्री उत्तराध्ययनसूत्र, अ०२८ 'शब्द, अधकार, प्रकाश, काति, छाया, आतप, वर्ण, रस, गंध और स्पर्श ये पुद्गल का लक्षण है । '