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छठाँ व्याख्यान
आत्मा की संख्या
महानुभावो !
श्री उत्तराध्ययन-सूत्र के छत्तीसवें अध्ययन मे से उद्धृत आत्मा का विषय चल रहा है। आप उसका नित्य श्रवण करके इस व्याख्या को सिद्ध कर रहे है कि 'शृणोति जिनवचनमिति श्रावक : ' — जो जिन वचनों को गुरुमुख से सुने सो श्रावक ! लेकिन, एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल डालने को सच्चा श्रावक नहीं कहते | सुनने की भी रीति है । वह श्रावक शब्द के दूसरे अर्थ में बतायी गयी है । श्रावक शब्द का दूसरा अर्थ इस प्रकार है - श्रा यानी श्रद्धा, व यानी विवेक, और क यानी क्रिया से युक्त | जो इन तीनो से युक्त हो वह श्रावक । इसलिए, आप जो कुछ सुनें उसे श्रद्धापूर्वक सुने — जिन-वचन अन्यथा हो ही नहीं सकते, ऐसे दृढ विश्वास से सुने । उसमें यह निर्णय करते जाना विवेक है कि, यह जानने लायक है, यह आचरने लायक है, यह छोड़ने लायक है । और, आचरने योग्य को आचरण में लाना क्रिया है ।
'जो एक को जानता है वह सबको जानता है', ऐसा ज्ञानी भगधन्त का वचन है, इसलिए आप एक आत्मा को अच्छी तरह जान ले ।
आत्मा का अस्तित्व है, वह नित्य अर्थात् अजर-अमर है, कर्म का फल भोगने के लिए भिन्न-भिन्न योनियो में जन्मता है और हर दशा में अखण्डित रहता है | इतनी बात हम विस्तार से विचार कर चुके हैं। अब आत्मा की सख्या के सम्बन्ध में विचार करें ।